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________________ । २७ १. १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं मिति । तत्र लौकिकं त्रिविधम् , सचित्तमचित्तं मिश्रमिति । तत्राचित्तमङ्गलम् - सिद्धत्थ-पुण्ण-कुंभो वंदणमाला य मंगलं छत्तं। सेदो वण्णो आदसणो य कण्णा य जच्चस्सा ॥ १३ ॥ सचित्तमङ्गलम् । मिश्रमङ्गलं सालङ्कारकन्यादिः । उन दोनों से लौकिकमंगल सचित्त, अचित्त और मिश्रके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें-'सिद्धार्थ अर्थात् पीले सरसों, जलसे भरा हुआ कलश, वंदनमाला, छत्र, श्वेत-वर्ण, और दर्पण आदि अचित्त मंगल हैं। और बालकन्या तथा उत्तम जातिका घोड़ा आदि सचित्त मंगल हैं ॥१३॥ विशेषार्थ-पंचास्तिकायकी टीकामें भी जयसेन आचार्यने इन पदार्थोको मंगलरूप माननेमें भिन्न भिन्न कारण दिये हैं। वे इसप्रकार हैं, जिनन्द्रदेवने व्रतादिकके द्वारा परमार्थको प्राप्त किया और उन्हें सिद्ध यह संज्ञा प्राप्त हुई, इसलिये लोकमें सिद्धार्थ अर्थात् सरसों मंगलरूप माने गये। जिनेन्द्रदेव संपूर्ण मनोरथोंसे अथवा केवलज्ञानसे परिपूर्ण हैं, इसलिये पूर्ण-कलश मंगलरूपसे प्रसिद्ध हुआ। बाहर निकलते समय अथवा प्रवेश करते समय चौवीस ही तीर्थकर धन्दना करने योग्य हैं, इसलिये भरत चक्रवर्तीने वन्दनमालाकी स्थापना की। अरहंत परमेष्ठी सभी जीवोंका कल्याण करनेवाले होनेसे जगके लिये छत्राकार है, अथवा सिद्धलोक भी छत्राकार है, इसलिये छत्र मंगलरूप माना गया है । ध्यान, शुक्ललेश्या इत्यादि श्वेत-वर्ण माने गये हैं, इसलिये श्वेतवर्ण मंगलरूप माना गया है। जिनेन्द्रदेवके केवलज्ञानमें जिसप्रकार लोक और अलोक प्रतिभासित होता है. उसीप्रकार दर्पण में भी अपना बिम्ब अलकता है। अतएव दर्पण मंगलरूप माना गया है। जिसप्रकार वीतराग सर्वज्ञदेव लोकमें मंगलस्वरूप हैं, उसी प्रकार बालकन्या भी रागभावसे रहित होनेके कारण लोकमें मंगल मानी गई है। जिसप्रकार जिनेन्द्रदेवने कर्म-शत्रुओं पर विजय पाई, उसीप्रकार उत्तम जातिके घोड़ेसे भी शत्रु जीते जाते हैं, अतएव उत्तम जातिका घोड़ा मंगलरूप माना गया है ॥१३॥ अलंकार सहित कन्या आदि मिश्र-मंगल समझना चाहिये। यहां पर अलंकार अचित्त और कन्या सचित्त होनेके कारण अलंकारसहित कन्याको मिश्रमंगल कहा है। १. वयाणियमसंजमगुणेहि साहिदो जिणवरेहि परमट्ठो । सिद्धा सण्णा जेसिं सिद्धत्था मंगलं तेण ॥ पुण्णा मणोरहेहि य केवलणाणेण चावि संपुण्णा। अरहंता इदि लोए सुमंगलं पुण्णकुंभो दु॥ णिग्गमणपवेसम्हि य इह चरवीसं पि वंदणिछा ते । वंदणमाले ति कया भरहेण य मंगलं तेण ॥ सव्वजणणिबुदियरा छत्तायारा जगस्स अरहंता। छत्तायारं सिद्धि त्ति मंगलं तेण छत्तं तं ॥ सेदो वण्णो ज्झाणं लेस्सा य अघाइसेसकम्मं च । अरुहाण इदि लोए सुमंगलं सेदवण्णो दु॥ दीसइ लोयालोओ केवलणाणे तहा जिाणंदस्स । तह दीसइ मुकुरे बिंबु मंगलं तेण तं मुणह ।।जह वीयरायसव्वण्हू जिणवरो मंगलं हवइ लोए। हयरायबालकण्णा तह मंगलमिदि वियाणाहि ॥ कम्मारि जिणेविण जिणवरेहिं मोक्खु जिणाहि वि जेण । जच्चस्स उ अरिवल जिणइ मंगलु वुच्चइ तेण ॥ पश्चा. टीका. - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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