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________________ ३०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. एदेसु णिक्खेवेसु केण णिक्खेवेण पयोजणं ? णो-आगमदो भाव-णिक्खेवेण तप्परिणएण पयोजणं । जदि णो-आगमदो भाव-णिक्खेवेण तप्परिणदेण पयोजणमियरहि णिक्खेवेहि इह किं पयोजणं ? जत्थ बहु जाणिजो अवरिमिदं तत्थ णिक्खिवे णियमा । जत्थ बहुवं ण जाणदि चउठ्यं णिक्खिवे तत्थ ॥ १४ ॥ इदि वयणादो णिक्खेवो कदो। अथ स्यात् , किमिति निक्षेपः क्रियत इति ? उच्यते, त्रिविधाः श्रोतारः, अव्युत्पन्नः अवगताशेषविवक्षितपदार्थः एकदेशतोऽवगतविवक्षितपदार्थ इति । तत्र प्रथमोऽव्युत्पन्नत्वान्नाध्यवस्यतीति । विवक्षितपदस्याथ द्वितीयः संशेते कोऽर्थोऽस्य पदस्याधिकृत जिनेन्द्रदेव आदिकी वन्दना, भावस्तुति आदिमें परिणत जविको तत्परिणतनोआगमभावमंगल कहते हैं। शंका- इन निक्षेपों से यहां (इस ग्रन्थावताररूप प्रकरणमें ) किस निक्षेप से प्रयोजन है ? समाधान- यहांपर तत्परिणतनोआगमभावमंगल से प्रयोजन है। शंका-यादि यहां तत्परिणतनाआगमभावमंगल से ही प्रयोजन था, तो अन्य निक्षेपोंके कथन करने से यहां क्या प्रयोजन है ? अर्थात् प्रयोजनके विना उनका यहां कथन नहीं करना चाहिये था। समाधान-'जहां जीवादि पदार्थों के विषयमें बहुत जाने, वहांपर नियमसे सभी. निक्षेपोंके द्वारा उन पदार्थोंका विचार करना चाहिये । और जहांपर बहुत न जाने, तो वहांपर चार निक्षेप अवश्य करना चाहिये । अर्थात् चार निक्षेपोंके द्वारा उस वस्तुका विचार अवश्य करना चाहिये ॥१४॥ इस वचनके अनुसार यहांपर निक्षेपोंका कथन किया गया। पूर्वोक्त कथनके मान लेने पर भी, किस प्रयोजनको लेकर निक्षेपोंका कथन किया जाता है, इसप्रकारकी शंका करने पर आचार्य उत्तर देते हैं, कि श्रोता तीन प्रकारके होते हैं, पहला अव्युत्पन्न अर्थात् वस्तु-स्वरूपसे अनभिन्न, दूसरा संपूर्ण विवक्षित पदार्थको जाननेवाला, और तीसरा एकदेश विवक्षित पदार्थको जाननेवाला। इनमेंसे पहला श्रोता अव्युत्पन्न होनेके कारण विवक्षित पदके अर्थको कुछ भी नहीं समझता है। दूसरा 'यहां पर इस पदका कौनसा अर्थ अधिकृत है' इसप्रकार विवक्षित पदके अर्थमें संदेह करता है, अथवा, प्रकरणप्राप्त अर्थको १ प्रतिषु · जाणिञ्चो' इति पाठः २ जत्थ य ज जाणेज्जा निक्खेवं निविखवे निरवसेसं | जत्थ वि अन जाणेज्जा चउकगं निक्खिवे तत्थ ॥ अनु. द्वा. १, ६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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