SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संत- परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं 'बिस-बेयण-रत्तक्खय-भय-सत्थग्गहणं-संकिलिस्सेहि । आहारोस्सासाणं णिरोहदो छिज्जदे आऊ || इदि । चतसरीरं तिविहं पायोवगमण विहाणेण, इंगिणि- विहाणेण, भत्त-पच्चक्खाणविहाणेण चात्तमिदि । तत्रात्मपरोपकारनिरपेक्षं प्रायोपगमनम्। आत्मोपकारसव्यपेक्षं परोप १, १, १. ] विष खा लेनेसे, वेदनासे, रक्तका क्षय हो जानेसे, तीव्र भयसे, शस्त्राघातसे संक्लेशकी अधिकतासे, आहार और श्वासोच्छ्रासके रुक जानेसे आयु क्षीण हो जाती है । इसतरह जो मरण होता है उसे कदलीघात मरण कहते हैं । विशेषार्थ – जैसे कदली (केला) के वृक्षका तलवार आदिके प्रहारसे एकदम विनाश हो जाता है, उसीप्रकार विष-भक्षणादि निमित्तोंसे भी जीवकी आयु एकदम उदीर्ण हो जाती है। इसे ही अकाल-मरण कहते हैं, और इसके द्वारा जो शरीर छूटता है उसे च्यावित शरीर कहते हैं । [ २३ त्यक्तशरीर तीन प्रकारका है, प्रायोपगमन विधानसे छोड़ा गया, इंगिनी विधानसे छोड़ा गया और भक्तप्रत्याख्यान विधानसे छोड़ा गया। इसतरह इन तीन निमित्तोंसे त्यक्त शरीरके तीन भेद हो जाते हैं। अपने और परके उपकारकी अपेक्षा रहित समाधिमरणको प्रायोपगमन विधान कहते हैं। विशेषार्थ - प्रायोपगमन समाधिमरणको धारण करनेवाला साधु संस्तरका ग्रहण करना, बाधा निवारणके लिये हाथ पांवका हिलाना, एक क्षेत्रको छोड़कर दूसरे क्षेत्रमें जाना आदि क्रियाएं न तो स्वयं करता है और न दूसरेसे कराता है । जैसे काष्ठ सर्वथा निश्चल रहता है, उसीप्रकार वह साधु समाधिमें सर्वथा निश्चल रहता है । शास्त्रोंमें प्रायोपगमनके अनेक प्रकारके अर्थ मिलते हैं । जैसे, संघको छोड़कर अपने पैरोंद्वारा किसी योग्य देशका आश्रय करके जो समाधिमरण किया जाता है उसे पादोपगमन समाधिमरण कहते हैं । अथवा, प्राय अर्थात् संन्यासकी तरह उपवासके द्वारा जो समाधिमरण होता है उसे प्रायोपगमन समाधिमरण कहते हैं । अथवा, पादप अर्थात् वृक्षकी तरह निष्पन्दरूपसे रहकर, शरीरसे किसी भी प्रकारकी क्रिया न करते हुए जो समाधिमरण होता है उसे पादपोपगमन समाधिमरण कहते हैं। इन सब अथका मुख्य अभिप्राय यही है कि इस विधानमें अपने व परके उपकार की अपेक्षा नहीं रहती है। १. गो. क. ५७. २. पायोवगमणमरणं, पादाभ्यामुपगमनं ढौकनं तेन प्रवर्तितं मरणं पादोपगमनमरणम् । अथवा ' पाउग्गगमणमरणं' इति पाठः, भवान्तकरणं प्रायोग्यं संहननं संस्थानं चेह प्रायोग्यशब्देनोच्यते । अस्य गमनं प्राप्तिः, तेन कारणभूतेन यन्निवर्त्य मरणं तदुच्यते पाउग्गगमणमरणमिति । मूलारा. पृ. ११३. ' पाओवगमणं पादपस्येवोपगमनमस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपापगमनम् । तदुक्तं - पाओवगमं भणियं सम-विसमे पायवो जहा पडितो । नवरं परप्पओगा कंपेज जहा चलतरु व्व ॥ ५४४ अभिरा. कोष ( पाओवगमण ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy