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________________ २२] छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १. सरीरस्स मंगल-चवएसो ण अण्णेसिं, तेसु हिद-मंगल-पज्जायाभावा । ण, राय-पज्जायाहारत्तणेण अणागदादीद-जीवे वि राय-बवहारोवलंभा । तत्थ अदीद-सरीरं तिविहं, चुदं चइदं चत्तमिदि । तत्थ चुदं णाम कयलीघादेण विणा पकं पि फलं व कम्मोदएण ज्झीयमाणायु-क्खय-पदिदं । चइदं णाम कयलीघादेण छिण्णायुक्खय-पदिद-सरीरं । उत्तं च परंतु भावी और भूतकालके शरीरकी अवस्थाको मंगल संज्ञा देना किसी प्रकार भी उचित नहीं है, क्योंकि, उनमें वर्तमान मंगलरूप पर्यायका अभाव है? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि राज-पर्यायका आधार होनेसे अनागत और अतीत जीवमें भी जिसप्रकार राजारूप व्यवहारकी उपलब्धि होती है, उसीप्रकार मंगल पर्यायसे परिणत जीवका आधार होनेसे अतीत और अनागत शरीरमें भी मंगलरूप व्यवहार हो सकता है। विशेषार्थ-आगमके सहकारी कारण होनेसे शरीरको नो-आगम कहा गया है और उसमें अन्वय प्रत्ययकी उपलब्धि होनेसे उसे द्रव्य कहा गया है। ये दोनों बातें अतीत, वर्तमान और अनागत इन तीनों शरीरोंमें घटित होती हैं, इसलिये इनमें मंगलपनेका व्यवहार हो सकता है। इसका खुलासा इसप्रकार है औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर मंगलविषयक शास्त्रके परिक्षानमें सहकारी कारण हैं, क्योंकि, इनके विना कोई शास्त्रका अभ्यासही नहीं कर सकता है। अब इनमें अन्वयप्रत्यय कैसे पाया जाता है इसका खुलासा करते हैं। जिस शरीरसे मैंने मंगल शास्त्रका अभ्यास किया था वही शरीर उक्त अभ्यासको पूरा करते समय भी विद्यमान है, इसप्रकार तो वर्तमान ज्ञायक शरीरमें अन्वयप्रत्यय पाया जाता है। मंगल शास्त्रज्ञानसे उपयुक्त मेरा जो शरीर था, तद्विषयक शास्त्रज्ञानसे रहित मेरे अब भी वही शरीर विद्यमान है, इसप्रकार अतीत झायक शरीरमें अन्वयप्रत्ययकी उपलब्धि होती है। मंगल शास्त्रज्ञानके उपयोगसे रहित मेरा जो शरीर है वहीं तद्विषयक तत्वज्ञानकी उपयोग-दशामें भी होगा, इसप्रकार अनागत शायकशरीरमें अन्वयप्रत्ययकी उपलब्धि बन जाती है । इसलिये वर्तमान शरीरकी तरह अतीत और अनागत शरीरमें भी मंगलरूप व्यवहार हो सकता है। .. इनमेंसे अतीत शरीरके तीन भेद हैं, च्युत, च्यावित और त्यक्त। कदलीघात-मरणके विना कर्मके उदयसे झड़नेवाले आयुकर्मके क्षयसे पके हुए फलके समान अपने आप पतित शरीरको च्युतशरीर कहते हैं। _ विशेषार्थ-जैसे पका हुआ फल अपना समय पूरा हो जानेके कारण वृक्ष से स्वयं गिर पड़ता है। वृक्षसे अलग होने के लिये उसे और दूसरे निमित्तोंकी अपेक्षा नहीं पड़ती है। उसीप्रकार आयु कर्मके पूरे हो जाने पर जो शरीर शस्त्रादिकके विना छूट जाता है, उसेच्युत शरीर कहते हैं। कदलीघातके द्वारा आयुके छिन्न हो जानेसे छूटे हुए शरीरको च्यावितशरीर कहते हैं। कहा भी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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