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________________ १, १, १.] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [२१ अण्णो णो-आगमो । तत्थं आगमदो दब-मंगलं णाम मंगल-पाहुड-जाणओ अणुवजुत्तो, मंगल-पाहुड-सद्द-रयणा वा, तस्सत्थ-दुवणक्खर-रयणा वा । णो-आगमदो दव्व-मंगलं तिविहं, जाणुग-सरीरं भवियं तव्वदिरित्तमिदि । जंतं जाणुग-सरीरं णो-आगम-दव्य-मंगलं तं तिविहं, मंगल-पाहुडस्स केवल-णाणादि-मंगल-पज्जायस्स वा आधारत्तणेण भविय-बट्टमाणादीद-सरीरमिदि । आहारस्साहेयोवयारादो भवदु धरिद-मंगल-पज्जाय-परिणद-जीव . मंगल-प्राभृत अर्थात् मंगल विषयका प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रको जाननेवाला, किंतु वर्तमानमें उसके उपयोगसे रहित जीवको आगम-द्रव्यमंगल कहते हैं । अथवा, मंगल विषयके प्रतिपादक शास्त्रकी शब्द-रचनाको आगम-द्रव्यमंगल कहते हैं। मंगल विषयको प्रतिपादन करनेवाले शास्त्रकी स्थापनारूप अक्षरोंकी रचनाको भी आगम-द्रव्यमंगल कहते हैं। विशेषार्थ-आगे होनेवाली पर्यायके सन्मुख, अथवा वर्तमान पर्यायकी विवक्षासे रहित, अर्थात् भूत या भविष्यत् पर्यायकी विवक्षासे द्रव्यको द्रव्यनिक्षेप कहा है, और तद्विषयक ज्ञानको आगम कहा है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि जो वर्तमानमें मंगलविषयक शास्त्रके उपयोगसे रहित हो वह आगमद्रव्यमंगल है। यहांपर जो मंगलविषयक शास्त्रकी शब्दरचना अथवा मंगलशास्त्रको स्थापनारूप अक्षरोंकी रचनाको आगमद्रव्यमंगल कहा है वह उपचारसे ही समझना चाहिये, क्योंकि, मंगलविषयक शास्त्र-शानमें मंगलविषयक शास्त्रकी शब्दरचना और मंगलशास्त्रकी स्थापनारूप अक्षरोंकी रचना ये मुख्यरूपसे निमित्त पड़ते हैं। वैसे तो सहकारी कारण शरीरादिक और भी होते हैं, परंतु वे मुख्य निमित्त न होनेसे उनका ग्रहण नो-आगममें किया है। अथवा, मंगलविषयक शास्त्रज्ञानसे और दूसरे निमित्तोंकी अपेक्षा इन दोनों निमित्त की विशेषता दिखाने के प्रयोजनसे इन दोनों निमित्तोंका आगमढव्यमंगलमें ग्रहण कर लिया है। ___नो-आगमद्रव्यमंगल तीन प्रकारका है, शायकशरीर, भव्य या भावि और तद्वयतिरिक्त । उनमें जो शायकशरीर नो-आगमद्रव्यमंगल है वह भी तीन प्रकारका समझना चाहिये । मंगलविषयक शास्त्रका अथवा केवलज्ञानादिरूप मंगल-पायका आधार होनेसे भाविशरीर, वर्तमानशरीर और अतीतशरीर, इसप्रकार शायकशरीर नो-आगमद्रव्यनिक्षेपके तीन भेद हो जाते हैं। शंका-आधारभूत शरीरमें आधेयभूत आत्माके उपचारसे धारण की हुई मंगलपर्यायसे परिणत जीवके शरीरको नो-आगमनायकशरीरद्रव्यमंगल कहना तो उचित भी है, १ आगमओऽणुवउत्तो मंगल-सद्दाणुवासिओ वत्ता । तन्नाण-लद्धि-सहिओ वि नोवउत्तो ति तो दवं ॥ जइ नाणमागमो तो कह दव दवमागमो कह णु । आगम-कारणमाया देहो सद्दो यतो दव्वं ॥ मंगल-पयत्थ-जाणयदेहो भवस्स वा सजीवो वि । नो आगमओ दव्वं आगम-रहिओ तिजं भणि ॥ अहवा नो देसम्मि नो आगमओ तदेग-देसाओ । भूयस्स भाविणो वाऽऽगमस्स जं कारणं देहो ॥ जाणय-भव-सरीराइरित्तमिह दब.मंगलं होइ । जा मंगल्ला किरिया त कुणमाणी अणुवउत्तो ।। वि. भा. २९, ३०, ४४, ४५, ४६. .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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