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________________ २४ छक्खंडागमे जीवाणं [१, १, १. कारनिरपेक्षं इंगिनीमरणम् । आत्मपरोपकारसव्यपेक्षं भक्तप्रत्याख्यानमिति । तत्र भक्तप्रत्याख्यानं त्रिविधं जघन्योत्कृष्टमध्यमभेदात् । जघन्यमन्तर्मुहूर्तप्रमाणम् । उत्कृष्टभक्तप्रत्याख्यानं द्वादशवर्षप्रमाणमें । मध्यममेतयोरन्तरालमिति । जिस संन्यासमें, अपने द्वारा किये गये उपकारकी अपेक्षा रहती है, किन्तु दुसरेके द्वारा किये गये वैयावृत्य आदि उपकारकी अपेक्षा सर्वथा नहीं रहती, उसे इंगिनीसमाधि कहते है। विशेपार्थ- इंगिनी शब्दका अर्थ इंगित (अभिप्राय ) है। इससे यह तात्पर्य निकलता है कि इस समाधिमरणको करनेवाला स्वतः किये हुए उपकारकी अपेक्षा रखता है। इस समाधिमरणमें साधु संघसे निकलकर किसी योग्य देशमें समभूमि अथवा शिलापट्ट देखकर उसके ऊपर स्वयं तृणका संस्तर तैयार करके समाधिकी प्रतिज्ञा करता है। इसमें उठना, बैठना, सोना, हाथ-पैरका पसारना, मल-मूत्रका विसर्जन करना आदि क्रियाएं क्षपक स्वयं करता है। किसी दूसरे साधुकी सहायता नहीं लेता है। इसतरह यावज्जीवन चार प्रकारके आहारके त्यागके साथ, स्वयं किये गये उपचार सहित समाधिमरणको इंगिनी-संन्यास कहते हैं। जिस संन्यासमें अपने और दूसरेके द्वारा किये गये उपकारकी अपेक्षा रहती है उसे भक्त प्रत्याख्यानसंन्यास कहते हैं। विशेषार्थ-भक्त नाम भोजनका है और प्रत्याख्यान त्यागको कहते हैं। इसका यह अभिप्राय है कि जिस संन्यासमें क्रम-क्रमसे आहारादिका त्याग करते हुए अपने और पराये उपकारकी अपेक्षा रखकर समाधिमरण किया जाता है, उसे भक्त-प्रत्याख्यान-संन्यास कहते हैं। इन तीनों प्रकारके समाधिमरणोंमेंसे भक्त-प्रत्याख्यानविधि जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीन प्रकारकी है । जघन्य भक्तप्रत्याख्यानविधिका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तमात्र है, उत्कृष्ट भक्तप्रत्याख्यानविधिका प्रमाण बारह वर्ष है और मध्यम भक्तप्रत्याख्यान विधिका प्रमाण, जघन्य अन्तर्मुहूर्तसे लेकर बारह वर्षके भीतर है।। १. इंगिणीशब्देन, इंगितमात्मनोऽभित्रायो भण्यते, स्वाभिप्रायेण स्थित्वा प्रव-र्यमानं मरणं इंगिणीमरणम् । यापुनः स्त्रत्रयावृत्तिसापेक्षमेव । मृलारा. पृ. १२४. अत्र नियमाचतुर्विधाहारविरतिः, परपरिकर्मविवर्जनश्च भवति । स्वय पुनरिङ्गितदेशाभ्यन्तरे उद्वर्तनादि चेष्टात्मक परिकर्म यथासमाधि विदधाति । अमि. रा. कोष. (इंगिणी) २. भव्यते देहस्थित्यर्थमिति भक्तमाहारः। तस्य प्रतिज्ञा प्रत्याख्यान त्यागः। भनप्रतिज्ञा स्वपरवैयावृत्त्यसापेक्षं मरणम् । मूलारा. पृ. ११३. ३. उक्कस्सएण भत्त-पइण्णा कालो जिणेहि णिहिट्ठो। कालं हि संपत्ते वारिस वरिसाणि पुण्णाणि ॥ जोगेहि विचित्तेहिं दु खवेदि संवच्छराणि चत्तारि। वियडीणि य जूहित्ता चत्तारि पुणो वि सोसेइ ॥ आयंविल-णिवियडीहिं दोणि आयंविलेण एकं च | अद्ध णादि बिगट्टेहिं तदो अद्धं विगटेहि ॥ मूलारा. २५७-२५९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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