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________________ १, १, १. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [ ११ इदि वयणादो कय-णिक्खेवे दट्टूण णयाणमवदारो भवदि । को णयों णाम ? यदि ति यो भणिओ बहूहि गुण- पज्जएहि जं दव्वं । परिणाम - खेत्त- कालंतरेसु अविणः सम्भावं ॥ ४ ॥ करनेके लिये पहले निर्दोष पद्धतिसे श्लोकादिकका उच्चारण करना चाहिये, तदनन्तर पदच्छेद करना चाहिये, उसके बाद उसका अर्थ कहना चाहिये, अनन्तर पद - निक्षेप अर्थात् नामादिविधिसे नयोंका अवलंबन लेकर पदार्थका ऊहापोह करना चाहिये। तभी पदार्थके स्वरूपका निर्णय होता है । पदार्थ निर्णयके इस क्रमको दृष्टिमें रखकर गाथाकारने अर्थ- पदका उच्चारण करके, और उसमें निक्षेप करके, नयोंके द्वारा, तत्व-निर्णयका उपदेश दिया है । गाथामें ' अत्थपदं' इस पद से पद, पदच्छेद और उसका अर्थ ध्वनित किया गया है। जितने अक्षरोंसे वस्तुका बोध हो उतने अक्षरोंके समूहको 'अर्थ-पद' कहते हैं। 'णिक्खेवं ' इस पदसे निक्षेप - विधिकी, और 'अत्थं जयंति तचतं' इत्यादि पदोंसे पदार्थ-निर्णयके लिये नयोंकी आवश्यकता बतलाई गई है ॥ ३ ॥ पूर्वोक्त वचनके अनुसार पदार्थमें किये गये निक्षेपको देखकर नयाँका अवतार होता है । शंका---नय किसे कहते हैं ? अनेक गुण और अनेक पर्यायसहित, अथवा उनकेद्वारा, एक परिणामसे दूसरे परिणाममें, एक क्षेत्रले दूसरे क्षेत्रमें और एक कालले दूसरे कालमें अविनाशी स्वभावरूपसे रहनेवाले द्रव्यको जो ले जाता है, अर्थात् उसका ज्ञान करा देता है, उसे नय कहते हैं ॥ ४ ॥ विशेषार्थ — आगममें द्रव्यका लक्षण दो प्रकार से बतलाया है, एक 'गुणपर्ययवद् द्रव्यम्' अर्थात् जिसमें गुण और पर्याय पाये जांय उसे द्रव्य कहते हैं । और दूसरा 'उत्पाद-व्ययश्रव्ययुक्तं सत् ' व ' सद् द्रव्यलक्षणम् ' जो उत्पत्ति, विनाश और स्थिति-स्वभाव होता है वह सत् है, और सत् ही द्रव्यका लक्षण है। यहां पर नयकी निरुक्ति करते समय द्रव्यके इन १ " अनन्त - पर्यायात्मकस्य वस्तुनः अन्यतम पर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्ययुक्त्यपेक्षो निरवद्य प्रयोगो नय इति अयं वाक्य-नयः तत्वार्थ भाष्य गतः । " जयव. अ. पृ. २६. स्याद्वाद - प्रविभकार्य विशेष व्यञ्जको नयः । आ. मी. १०६. वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हेत्वर्पणात्साध्य विशेषस्य याथात्म्य प्रापण प्रवण प्रयोगो नयः । स. सि. १, ३३. प्रमाण- प्रकाशितार्थ - विशेष - प्ररूपको नयः । त. रा. वा. १, ३३ प्रमाणेन वस्तु संगृहीतार्थैकांशो नयः । श्रुत-विकल्पो वा ज्ञातुरभिप्रायो वा नयः । नानास्वभावेभ्यो व्यावृत्य एकस्मिन् स्वभावे वस्तु नयति प्राप्नोति वा नयः । आ. प. १२१. जीवादीन् पदार्थान्नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वर्तयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यन्जयन्ति इति नयाः । स. त. सू. १, ३५. जं णाणीण वियप्पं मुअ-भेयं वत्थु-अस-संग्रहणं । तं इह णयं पउतं, गाणी पुण तेहिं णाणेहिं ॥ न. च. १७४.. २ दव्वं सङ्घक्खणियं उप्पाद व्वय- धुवत्त-संजुत्तं । गुण- पज्जयासयं वा जं तं भणति सव्वण्डू || पञ्चा. १०० अपरिचत्त-सहावेणुप्पाद-व्यय-धुवत्त-संजुत्तं । गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति वुच्चति ॥ प्रवच. २, ३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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