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________________ १०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १. अणवगय-धाउस्स सिस्सस्स अत्थावगमाणुववत्तीदो। उक्तं च शब्दात्पदप्रसिद्धि': पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्वज्ञानात्परं श्रेयः ॥ २ ॥ इति । णिच्छये णिण्णए खिवदि ति णिक्खेवो । सो वि छव्विहो, णाम-द्ववणा-दन्वखेत्त-काल-भाव-मंगलमिदि। उच्चारियमत्थपदं णिक्खेवं वा कयं तु दट्टण । अत्थं णयंति तच्चतमिदि तदो ते णया भाणियों ॥ ३ ॥ विना विवक्षित शब्दके अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। और अर्थ-बोधके लिये विवक्षित शब्दके अर्थका शान कराना आवश्यक है। इसलिये यहां पर धातुका निरूपण किया गया है। कहा भी है ___ शब्दसे पदकी सिद्धि होती है, पदकी सिद्धिसे उसके अर्थका निर्णय होता है, अर्थनिर्णयसे तत्वज्ञान अर्थात् हेयोपादेय विवेककी प्राप्ति होती है, और तत्वज्ञानसे परम कल्याण होता है ॥२॥ जो किसी एक निश्चय या निर्णयमें क्षेपण करे, अर्थात् अनिर्णीत वस्तुका उसके नामादिकद्वारा निर्णय करावे, उसे निक्षेप कहते हैं। वह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह प्रकारका है, और उसके संबन्धसे मंगल भी छह प्रकारका हो जाता है, नाममंगल, स्थापनामंगल, द्रव्यमंगल, क्षेत्रमंगल, कालमंगल, और भावमंगल। 'उच्चारण किये गये अर्थ-पद और उसमें किये गये निक्षेपको देखकर, अर्थात् समझकर, पदार्थको ठीक निर्णयतक पहुंचा देते हैं, इसलिये वे नय कहलाते हैं' ॥३॥ विशेषार्थ--आगमके किसी श्लोक, गाथा, वाक्य अथवा पदके ऊपरसे अर्थ-निर्णय १ श्लोकोऽयं 'व्याकरणात्पदसिद्धिः' इत्येतावन्मात्रपाठभेदेन सह प्रभाचन्द्रकृत-शाकटायनन्यास-सिद्धहैमादिव्याकरणग्रन्थेषुपलभ्यते । २ जुत्तीसु जुत्तमग्गे जं चउभेएण होइ खलु 8वणं। कज्जे सदि णामादिसु तं णिक्खेवं हवे समए ॥ नयच.२६९. निक्खिप्पड तेण तहिं तओ व निक्खेवणं व निक्खेवो। नियओ व निच्छओ वा खेवो नासो तिजं भणियं ॥ वि. भा. ९१२. निक्षेपणं शास्त्रादेर्नामस्थापनादिभेदैर्व्यसनं व्यवस्थापनं निक्षेपः। निक्षिप्यते नामादिभेदैर्व्यवस्थाप्यतेऽनेनास्मादिति वा निक्षेपः । वि. भा. ९१२. म. टी. ३ णामणिट्ठावणादो दबक्खेत्ताणि कालभावा य । इय छन्भेयं भणियं मंगलमाणंदसंजणणं ॥ ति.प. १, १८. ४ जत्तिएहि अक्सरेहि अत्थोवलद्धी होदि तेसिमक्खराणं कलावो अत्थपदं णाम। जयध. अ. पू. १२. ५ गाथेयं पाठभेदेन जयधवलायामप्युपलभ्यते। तद्यथा, उच्चारियम्मि दु पदे णिक्खेवं वा कयं तु दट्रण । अत्यं गयंति ते तञ्चदो वि तम्हा गया भाणिया । जयध.अ. पृ.३०. सुत्तं पयं पयत्यो पय-निक्खेवो य नित्रय-सिद्धी । चु. क. सू. ३.९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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