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________________ १, १, १. ] संत-परूवणाणुयोगद्दारे मंगलायरणं [ ९ तत्थ धाउ-णिक्खेव - णय- एयत्थ- णिरुत्ति-आणयोग-दारेहि मंगलं परूविज्जदि । तत्थ धाउ 'भू सत्तायां' इच्चेवमाइओ सयलत्थ - वत्थूणं सद्दाणं मूल- कारणभूदो । तत्थ मगि' इदि अणेण धाउणा णिप्पण्णो मंगल- सहो । धाउ - परूवणा किमट्ठे कीरदे ? ण, 4 भी देशामर्शक है । कल्पसूत्रके कल्पयाकल्प्य नामक प्रथम उद्देश्यके प्रथम सूत्रमें ' तालपलम्ब पद आता है, जिसका भाव यह है कि ताड़वृक्षको आदि लेकर जितनी भी वनस्पतिकी जातियां हैं, उनके अभिन्न (बिना तोड़े या काटे गये) और अपक या कचे अर्थात् सचित्त मूल, पत्र, फल, पुष्प आदिका लेना साधुको योग्य नहीं है । इस सूत्रमें तो केवल 'तालपलम्ब ' पद ही दिया है, फिर भी उसे उपलक्षण मानकर समस्त वृक्ष-जाति और उसके पत्र पुष्पादिकोंका ग्रहण किया गया है। उसी प्रकार यह नमस्कारात्मक सूत्र भी देशामर्शक होनेसे मंगलके साथ अधिकृत निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ताका भी बोधक है । उन उक्त मंगलादि छह अधिकारों में से पहले धातु, निक्षेप, नय, एकार्थ, निरुक्ति और अनुयोगके द्वारा 'मंगल' का प्ररूपण किया जाता है । उनमें 'भू' धातु सत्ता अर्थमें है, इसको आदि लेकर समस्त अर्थ-वाचक शब्दोंकी जो मूल कारण हैं उन्हें धातु कहते हैं । उनमें से ' माग ' धातुसे मंगल शब्द निष्पन्न हुआ है । अर्थात् 'मार्ग' धातुमें 'अलच्' प्रत्यय जोड़ देने पर मंगल शब्द बन जाता है । शंका- यहां धातुका निरूपण किसलिये किया जा रहा है ? शंकाकारका यह अभिप्राय है कि यह ग्रन्थ सिद्धान्त-विषयका प्ररूपक है, इसलिये इसमें धातुके कथनकी कोई आवश्यकता नहीं थी। इसका कथन तो व्याकरण-शास्त्रमें करना चाहिये । समाधान- -ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि, जो शिष्य धातुसे अपरिचित है, अर्थात् किस धातुसे कौन शब्द बना है इस बातको नहीं जानता है, उसे धातुके परिज्ञानके जह तालपबत्तम्मि ॥ मुलारा. ११२३. ' दसामासिय' इत्यादि स्थितिकल्पे वाच्ये तत्प्रथमतयोपदिष्टमाचेलक्यमिति सूत्रं देशामर्शकम् । बाह्यपरिग्रहैकदेशस्य चेलस्य परामर्शकं बाह्यपरिग्रहाणामुपलक्षणार्थमुपात्तम् । यथा • तालपलंब ण कप्पदि ति सूत्रे तालशब्दो वनस्पत्येकदेशस्य तरु विशेषस्य परामर्शको वनस्पतीनामुपलक्षणाय गृहीतः । तथा चोक्तं कल्पे, हरिदतणोसधिगुच्छा गुम्मा वहीं लदा य रुक्खा य । एवं वर्णफदीओ तालादेसेण आदिट्ठा ।। तालेदि दलेदि त्ति य तलेव जादो त्ति उस्सिदो व त्ति । तालादिणो तरु त्ति य वणफदीणं हवदि णामं ॥ तालस्य प्रलम्बं तालप्रलम्बम् । प्रलम्बं च द्विविधं मूलप्रलम्बं अग्रप्रलम्बं च । तत्र मूलप्रलम्बं भूम्यनुप्रवेशि कन्दमूलाङ्कुरादिकम् । ततोऽन्यदप्रप्रलम्बम् अङ्कुरप्रवालपत्रपुष्पफलादिकम् । वनस्पतिकन्दादिकमनुभोक्तुं निर्मन्थानामार्याणां च न युज्यते इति । यथा " तालपलंबं ण कम्पदि त्ति " इत्यत्र सूत्रेऽर्थस्तथा सकलोऽपि बाह्यः परिग्रहो मुमुक्षूणां ग्रहीतुं न युज्यते इत्याचेलक्केति सूत्रेऽर्थ इति तात्पर्यम् । तथा चोक्तम्, तदेशामर्शकं सूत्रमाचेंलक्यमिति स्थितम् । लुप्तोऽथवादिशब्दोऽत्र तालप्रलम्बसूत्रवत् ॥ मूलरा. टी. आचेलक्कुद्देसियसेवाहररायपिंडकिदियम्मे वदजेटुपडिक्कमणे मास पञ्जो समणकप्पी || मूलारा ४२१. अहवा एगग्गहणे ग्रहणं तज्जातियाण सव्वेसिं । तेणऽग्गपलंबेणं तु सूइया सेसगपलंबा ॥ ब्रु. क. सू. ८५५. १ ' मनेरलच् ' पा. उ. ५, ७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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