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________________ छक्खंडागमे जीवट्टाणं [१, ११, इदि णायमाइरिय-परंपरागयं मणेणावहारिय पुन्वाइरियायाराणुसरणं ति-रयणहेउ त्ति पुष्पदंताइरियो मंगलादीणं छण्णं सकारणाणं परूवणहूँ सुत्तमाह णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व-साहूणं ॥१॥ कधमिदं सुत्तं मंगल-णिमित्त-हेउ-परिमाण-णाम-कत्ताराणं सकारणाणं परूवयं ? ण, तालपलंब-सुत्तं व देसामासियत्तादो'। परंपरासे चला आ रहा है, और इस ग्रंथमें भी इसी क्रमसे व्याख्यान किया गया है ॥१॥ आचार्य परंपरासे आये हुए इस न्यायको मनमें धारण करके, और पूर्वाचार्योंके आचार अर्थात् व्यवहार-परंपराका अनुसरण करना रत्नत्रयका कारण है, ऐसा समझकर पुष्पदन्त आचार्य मंगलादिक छहों अधिकारोंका सकारण व्याख्यान करनेके लिये मंगल-सूत्र कहते हैं ____ अरिहंतोंको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आचार्योंको नमस्कार हो, उपाध्यायोंको नमस्कार हो, और लोकमें सर्व साधुओंको नमस्कार हो ॥१॥ विशेषार्थ-यही मंगलसूत्र नमोकार मंत्रके नामसे प्रसिद्ध है। इसके अन्तिम भागमें जो 'लोए' अर्थात् लोकमें और 'सव्व ' अर्थात् सर्व पद आये हैं, उनका संबन्ध ' णमो अरिहंताणं' आदि प्रत्येक नमस्कार वाक्य के साथ कर लेना चाहिये। इसका खुलासा आचार्यने स्वयं आगे चलकर किया है। शंका- यह सूत्र, मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ताका सकारण प्ररूपण करता है, यह कैसे संभव है ? शंकाकारका यह अभिप्राय है कि इस सूत्रमें जब कि केवल मंगल अर्थात् इष्ट-देवताको नमस्कार किया गया है तब उससे निमित्त आदि अन्य पांच अधिकारोंका स्पष्टीकरण कैसे संभव है। समाधान-यह मंगलसूत्र 'ताल-प्रलम्ब' सूत्रके समान देशामर्शक होनेसे मंगलादि छहों अधिकारोंका सकारण प्ररूपण करता है, इसलिये उपर्युक्त शंका ठीक नहीं है। विशेषार्थ-जो सूत्र अधिकृत विषयों के एकदेश कथनद्वारा समस्त विषयोंकी सूचना करे उसे देशामर्शक सूत्र कहते हैं । इसलिये 'तालप्रलम्बसूत्र' के समान यह मंगलसूत्र १ देशामर्शकस्य स्पष्टीकरणम् ___ जेणेदं सुत्तं देसामासयं, तेण उत्तासेसलवखणाणि एदेण उत्ताणि ' । स. प्रतौ पृ. ४८६. ' एदं देसामासिगसुत्तं कुदो ? एगदेसपदुप्पायणेण एत्थतणसयलत्थस्स सूचयत्तादो' । स. प्रतौ पृ. ४६८. ' एवं देसामासियसुत्तं, देसपदुप्पायणमुहेण सूचिदाणेयत्थादो' । स. प्रती पृ. ५८९. ' एदं देसामासियमुत्तं, तेणेदेण आमासियत्थेण अणामासियत्थो उच्चदे। स. प्रतौ पृ. ५९५. देसामासियमुत्तं आचेलवकं ति तं खु ठिदिकप्पे । लुत्तोऽथवादिसद्दो, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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