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________________ १२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, १, १.. तित्थयर-वयण संगह-विसेस-पत्थार-मूल-वायरणी। . दव्वढिओ य पज्जयःणयो य सेसा वियप्पा सिं' ।। ५ ॥ दव्वट्ठिय-णय-पयई सुद्धा संगह-परूवणा-विसयो । पडिरूवं पुण वयणत्थ-णिच्छयो तस्स ववहारो ॥ ६ ॥ दोनों लक्षणोंपर दृष्टि रक्खी गई प्रतीत होती है। नय किसी विवक्षित धर्मद्वारा ही द्रव्यका बोध कराता है। नयके इस लक्षणका संकेत भी ‘गुणपजएहि ' पदद्वारा हो जाता है। यह पद तृतीया विभक्ति सहित होनेसे उसे द्रव्यके लक्षणमें तथा निरुक्तिके साथ नयके लक्षणमें भी ले सकते हैं ॥४॥ तीर्थंकरोंके वचनोंके सामान्य-प्रस्तारका मूल व्याख्यान करनेवाला द्रव्यार्थिक नय है और उन्हीं वचनोंके विशेष प्रस्तारका मूल व्याख्याता पर्यायार्थिक नय है। शेष सभी नय इन दोनों नयोंके विकल्प अर्थात् भेद हैं ॥५॥ विशेषार्थ--जिनेन्द्रदेवने दिव्यध्वनिके द्वारा जितना भी उपदेश दिया है, उसका, अभेद अर्थात् सामान्यकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला द्रव्यार्थिक नय है, और भेद अर्थात् पयोयकी मुख्यतासे प्रतिपादन करनेवाला पर्यायार्थिक नय है। ये दोनों ही नय समस्त विचारों अथवा शास्त्रोंके आधारभूत हैं, इसलिये उन्हें यहां मूल व्याख्याता कहा है। शेष संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द आदि इन दोनों नयोंके अवान्तर भेद हैं ॥ ५ ॥ - संग्रह नयकी प्ररूपणाको विषय करना द्रव्यार्थिक नयकी शुद्ध प्रकृति है, और वस्तुके प्रत्येक भेदके प्रात शब्दार्थका निश्चय करना उसका व्यवहार है। अथोत् व्यवहार नयका प्ररूपणाको विषय करना द्रव्यार्थिक नयकी अशुद्ध प्रकृति है ॥६॥ विशेषार्थ-वस्तु सामान्य-विशेष-धर्मात्मक है। उनमेंसे सामान्य-धर्मको विषय करना द्रव्यार्थिक और विशेष-धर्मको (पर्यायको) विषय करना पर्यायार्थिक नय है। उनमेंसे संग्रह और व्यवहारके भेदसे द्रव्यार्थिक नय दो प्रकारका है। जो अभेदको विषय करता है उसे संग्रह नय कहते हैं, और जो भेदको विषय करता है उसे व्यवहार नय कहते हैं। ये दोनों ही द्रव्यार्थिक नयकी क्रमशः शुद्ध और अशुद्ध प्रकृति हैं । जब तक द्रव्यार्थिक नय घट, पट आदि विशेष भेद न करके द्रव्य सत्स्वरूप है इसप्रकार द्रव्यको अभेदरूपसे ग्रहण करता है तब तक वह उसकी शुद्ध प्रकृति समझनी चाहिये । इसे ही संग्रह नय कहते हैं। तथा सत्स्वरूप जो द्रव्य है, उसके जीव और अजीव ये दो भेद हैं। जविके संसारी और मुक्त इसतरह दो भेद हैं। अजीव भी पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इस तरह पांच भेदरूप है । इसप्रकार उत्तरोत्तर प्रभेदोंकी अपेक्षा अभेदको स्पर्श करता हुआ भी जब वह भेदरूपसे वस्तुको ग्रहण वह उसकी अशुद्ध प्रकृति समझनी चाहिये। इसीको व्यवहार नय कहते हैं। -....................................... १ एनामारभ्य चतम्रो गाथाः सिद्धसेन-दिवाकर-प्रणीत-सन्मतितकें प्रथमे काण्डे गाथा ३, ४, ५, ११ इति क्रमेणोपलभ्यन्ते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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