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________________ (८७) शौरसेनीपन स्थिर है । यथा, गाथा २०७ में यहां 'खमइ बहुअं हि' है वहां गो. जी. ५१६ में 'खमदि बहुगं पि' पाया जाता है । गाथा २१० में यहां 'एय-णिगोद' है, किन्तु गोम्मटसार १९६ में उसी जगह 'एग-णिगोद' है । ऐसे स्थलोंपर गोम्मटसारमें प्राचीन पाठ रक्षित रह गया प्रतीत होता है । इन उदाहरणोंसे यह भी स्पष्ट है कि जबतक प्राचीन ग्रंथोंकी पुरानी हस्तलिखित प्रतियोंकी सावधानीसे परीक्षा न की जाय और यथेष्ट उदाहरण सन्मुख उपस्थित न हों तबतक इनकी भाषाके विषयमें निश्चयतः कुछ कहना अनुचित है। टीका का प्राकृत गद्य प्रौढ, महावरेदार और विषयके अनुसार संस्कृतकी तर्कशैलीसे प्रभावित है । सन्धि और समासोंका भी यथास्थान बाहुल्य है । यहां यह बात उल्लेखनीय है कि सूत्र-ग्रंथोंको या स्फुट छोटी मोटी खंड रचनाओंको छोडकर दिगम्बर साहित्यमें अभीतक यही एक ग्रंथ ऐसा प्रकाशित हो रहा है जिसमें साहित्यिक प्राकृत गद्य पाया जाता है । अभी इस गद्यका बहुत बड़ा भाग आगे प्रकाशित होने वाला है । अतः ज्यों ज्यों वह साहित्य सामने आता जायगा त्यों त्यों इस प्राकृतके स्वरूपपर अधिकाधिक प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया जायगा। - इसी कारण ग्रंथकी संस्कृत भाषाके विषयमें भी अभी हम विशेष कुछ नहीं लिखते । केवल इतना सूचित कर देना पर्याप्त समझते हैं कि ग्रंथकी संस्कृत शैली अत्यन्त प्रौढ, सुपरिमार्जित और न्यायशास्त्रके ग्रंथोंके अनुरूप है। हम अपने पाठ-संशोधन के निममोंमें कह आये हैं कि प्रस्तुत ग्रंथमें अरिहंतः शब्द अनेकबार आया है और उसकी निरुक्ति भी अरिहननाद् अरिहंतः आदि की गई है । संस्कृत व्याकरणके नियमानुसार हमें यह रूप विचारणीय ज्ञात हुआ। अई धातुसे बना अर्हत् होता है और उसके एकवचन व बहुवचनके रूप क्रमशः अर्हन और अर्हन्तः होते हैं । यदि अरि+हन से कर्तावाचक रूप बनाया जाय तो अरिहन्त होगा जिसके कर्ता एकवचन व बहुवचन रूप अरिहन्ता और अरिहन्तारः होना चाहिये। चूंकि यहां व्युत्पत्तिमें अरिहननात् कहा गया है अतः अर्हन् व अर्हन्तः शब्द ग्रहण नहीं किया जा सकता। हमने प्रस्तुत ग्रंथमें अरिहन्ता कर दिया है, किन्तु है यह प्रश्न विचारणीय कि संस्कृतमें अरिहन्तः जैसा रूप रखना चाहिये या नहीं । यदि हम हन् धातुसे बना हुआ 'अरिहा' शब्द ग्रहण करें और पाणिनि के 'मघवा बहुलम् ' सूत्रका इस शब्दपर भी अधिकार चलावें तो बहुवचनमें अरिहन्तः हो सकता है। संस्कृतभाषा की प्रगतिके अनुसार यह भी असंभव नहीं है कि यह अकारान्त शब्द अर्हत् के प्राकृत रूप अरहंत, अरिहंत, अरुहंत परसे ही संस्कृतमें रूढ़ हो गया हो। विद्वानोंका मत है कि गोविन्द शब्द संस्कृतके गोपेन्द्र का प्राकृत रूप है। किन्तु पीछे से संस्कृतमें भी वह रूढ हो गया और उसीकी व्युत्पति संस्कृतमें दी जाने लगी । उस अवस्थामें अरिहन्तः शब्द अकारान्त जैन संस्कृतमें रूढ माना जा सकता है । वैयाकरणोंको इसका विचार करना चाहिये । १ Keith: History of Sans. Lit., p. 24. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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