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________________ (८६) इन थोडेसे उदाहरणोंपरसे ही हम सूत्रों, गाथाओं व टीकाकी भाषा के विषयमें कुछ निर्णय कर सकते है। यह भाषा मागधी या अर्धमागधी नहीं है, क्योंकि उसमें न तो अनिवार्य रूपसे, और न विकल्पसे ही र के स्थान पर ल, व स के स्थानपर श पाया जाता, और न कर्ताकारक एकवचन में कहीं ए मिलता। त के स्थानपर द, क्रियाओंके एकवचन वर्तमान कालमें दि व दे, पूर्वकालिक क्रियाओंके रूपमें तु व दूण, अपादानकारककी विभक्ति दो तथा अधिकरणकारककी विभक्ति म्हि, क के स्थानपर ग, तथा थ के स्थानपर ध आदेश, तथा द, और ध का लोपाभाव, ये सब शौरसेनीके लक्षण हैं । तथा त का लोप, क्रियाके रूपोंमें इ, पूर्व कालिक क्रियाके रूपमें ऊण, ये महाराष्ट्रीके लक्षण हैं । ये दोनों प्रकारके लक्षण सूत्रों, गाथाओं व टीका सभीमें पाये जाते हैं। सूत्रोंमें जो वर्णविकारके विशेष उदाहरण पाये जाते हैं वे अर्धमागधीकी ओर संकेत करते हैं। अतः कहा जा सकता है कि सूत्रों, गाथाओं व टीकाकी भाषा शौरसेनी प्राकृत है, उसपर अर्धमागधी का प्रभाव है, तथा उसपर महाराष्ट्रीका भी संस्कार पड़ा है। ऐसी ही भाषाको पिशेल आदि पाश्चमिक विद्वानोंने जैन शौरसेनी नाम दिया है । सत्रोंमें अर्धमागधी वर्णविकार का बाहल्य है। सूत्रोंमें एक मात्र क्रिया · अस्थि' आती है और वह एकवचन व बहुवचन दोनोंकी बोधक है। यह भी सूत्रों के प्राचीन आर्ष प्रयोग का उदाहरण है। गाथाएं प्राचीन साहित्यके भिन्न भिन्न ग्रंथोंकी भिन्न भिन्न कालकी रची हुई अनुमान की जा सकती हैं । अतएव उनमें शौरसेनी व महाराष्ट्रीपनकी मात्रामें भेद है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा जितनी अधिक पुरानी है उतना उसमें शौरसेनीपन अधिक है और जितनी अर्वाचीन है उतना महाराष्ट्रीपन । महाराष्ट्रीका प्रभाव साहित्यमें पीछे पीछे अधिकाधिक पड़ता गया है । उदाहरणके लिये प्रस्तुत ग्रंथ की गाथा नं० २०३ लीजिये जो यहां इसप्रकार पाई जाती है रूसदि शिंददि अण्णे दूसदि बहुसो य सोय-भय-बहुलो । असुयदि परिभवदि परं पसंसदि अप्पयं बहुसो ॥ इसी गाथाने गोम्मटसार (जीवकांड ५१२) में यह रूप धारण कर लिया है रूसइ जिंदइ अण्णे दूसइ बहुसो य सोय-भय-बहुलो। असुयह परिभवइ परं पसंसए अप्पयं बहुसो ॥ यहांकी गाथाओंका गोम्मटसारमें इसप्रकारका महाराष्ट्री परिवर्तन बहुत पाया जाता है। किन्तु कहीं कहीं ऐसा भी पाया जाता है कि जहां इस ग्रंथमें महाराष्ट्रीपन है वहां गोम्मटसारमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001395
Book TitleShatkhandagama Pustak 01
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1939
Total Pages560
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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