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( ८८ ) उपसंहार.
अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामी के वचनोंकी उनके प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति गौतमने द्वादशांग श्रुतके रूपमें ग्रंथ रचना की जिसका ज्ञान आचार्य परम्परासे क्रमशः कम होते हुए धरसेनाचार्यतक आया । उन्होंने बारहवें अंग दृष्टिबादके अन्तर्गत पूर्वोके तथा पाचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्तिके कुछ अंशोंको पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्योंको पढाया । और उन्होंने वीर निर्वाण के पश्चात् ७ वीं शताब्दिके लगभग सत्कर्मपाहुडकी छह हजार सूत्रोंमें रचना की । इसीकी प्रसिद्धि षट्खंडागम नामसे हुई। इसकी टीकाएं क्रमशः कुन्दकुन्द, शामकुंड, तुम्बुलूर, समन्तभद्र और बप्पदेवने बनाई, ऐसा कहा जाता है, पर ये टीकाएं अब मिलती नहीं हैं । इनके अन्तिम टीकाकार वीरसेनाचार्य हुए जिन्होने अपनी सुप्रसिद्ध टीका धवलाकी रचना शक ७३८ कार्तिक शुक्ल १३ को पूरी की। यह टीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण है ।
षट्खंडागमका छठवां खंड महाबंध है । जिसकी रचना स्वयं भूतबलि आचार्यने बहुत विस्तारसे की थी । अतएव पंचिकादिकको छोड़ उसपर विशेष टीकाएं नहीं रची गईं । इसी महाबंध की प्रसिद्धि महाधवलके नामसे है जिसका प्रमाण ३० या ४० हजार कहा जाता है ।
धरसेनाचार्य के समय के लगभग एक और आचार्य गुणधर हुए जिन्हें भी द्वादशांग श्रुतका कुछ ज्ञान था । उन्होंने कषायप्राभृत की रचना की । इसका आर्यमक्षु और नागहस्तिने व्याख्यान किया और यतिवृषभ आचार्यने चूर्णिसूत्र रचे । इसपर भी वीरसेनाचार्य ने टीका लिखी । किन्तु वे उसे २० हजार प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हुए । तब उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेनाचार्यने ४० हजार प्रमाण और लिखकर उसे शक ७५९ में पूरा किया। इस टीकाका नाम जयधवला है और वह ६० हजार श्लोक प्रमाण है ।
इन दोनों या तीनों महाग्रंथों की केवल एकमात्र प्रति ताड़पत्रपर शेष रही थी जो सैकडों वर्षों से मूडबिद्रीके भंडारमें बन्द थी । गत २०।२५ वर्षों में उनमें धवला व जयधवाकी प्रतिलिपियां किसी प्रकार बाहर निकल पाई हैं । महाबंध या महाघवल अब भी दुष्प्राप्य है । उनमें से धक्लाके प्रथम अंशका अब प्रकाशन हो रहा है । इस अंशमें द्वादशांगवाणी व ग्रंथ रचना के इतिहासके अतिरिक्त सत्प्ररूपणा अर्थात् जीवसमासों और मार्गणाओं का विशेष विवरण है । सूत्रोंकी भाषा पूर्णतः प्राकृत हैं । टीकामें जगह जगह उद्धृत पूर्वाचार्यों के पद्य २१६ हैं जिनमें केवल १७ संस्कृतमें और शेष प्राकृतमें हैं, टीकाका कोई तृतीयांश प्राकृतमें और शेष संस्कृत में है । यह सब प्राकृत प्रायः वही शौरसेनी है जिसमें कुन्दकुन्दादि आचार्यों के ग्रंथ रचे पाये जाते हैं । प्राकृत और संस्कृत दोनों की शैली अत्यंत सुन्दर, परिमार्जित और प्रौढ है।
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