________________
महाबन्ध
तीसरा उल्लेख भुजगारविभक्तिके अन्तर्गत उत्तरप्रकृतियोंका एक जीवकी अपेक्षा कालका निर्देश करते हुए किया गया है यह उल्लेख प्रथम उल्लेखके समान है, इसलिए यहाँ उसका अलगसे निर्देश नहीं किया है।
पूर्व भागोंके समान हमें इस भागको व्यवस्थित करनेमें सहारनपुरनिवासी बन्धुद्वय श्रीयुक्त पं० रतनचन्द्रजी मुख्तार और श्रीयुक्त नेमिचन्द्रजी वकीलका सहयोग मिलता रहा है, इसलिए हम उनके आभारी हैं।
कर्मसाहित्यका विषय बहुत गहन और अनेक भागों व उपभागोंमें बँटा हुआ है। वर्तमान कालमें उसके गहन अध्ययन-अध्यापनकी व्यवस्था एक प्रकारसे विच्छिन्न हो गई है, इसलिए महाबन्धके सम्पादन, संशोधन और अनुवादमें सम्भव है हमसे अनेक त्रुटियाँ रह गई हों। हमें आशा है पाठक उनके लिए हमें क्षमा करेंगे। और जहाँ कहीं कोई त्रुटि उनके ध्यानमें आवे, उसकी सूचना हमें अवश्य ही देनेकी कृपा करेंगे।
फूलचन्द्र सि० शा०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org