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________________ विषय-परिचय यह महाबन्धका अन्तिम भाग प्रदेशबन्ध है। इसमें प्रत्येक समयमें बन्धको प्राप्त होनेवाले मूल और उत्तर कर्मोंके प्रदेशोंके आश्रयसे मूल प्रकृतिप्रदेशबन्ध और उत्तरप्रकृतिप्रदेशबन्धका विचार किया गया है। किन्तु दोनोंके विचार करनेका क्रम एक होनेसे यहाँ एक साथ ग्रन्थके हार्दको स्पष्ट किया जाता है। __भागाभागसमुदाहार-मूलमें सर्वप्रथम आठ कर्मोंका बन्ध होते समय किस कर्मको कर्मपरमाणुओंका कितना भाग मिलता है,इसका विचार करते हुए बतलाया गया है कि आयुकर्मको सबसे स्तोक भाग मिलता है। उससे नामकर्म और गोत्रकर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है। उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है। उससे मोहनीय कर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है। तथा उससे वेदनीय कर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है। इसका कारण क्या है इस बातका निर्देश करते हुए वहाँ लिखा है कि आयु कर्मका स्थितिबन्ध स्वल्प है, इसलिए उसे सबसे थोड़ा भाग मिलता है। वेदनीयके सिवा शेष कर्मों में जिसकी स्थिति दी । बहुत भाग मिलता है और वेदनीयके विषयमें यह लिखा है कि यदि वेदनीय न हो तो सब कर्म जीवको सुख और दुःख उत्पन्न करनेमें समर्थ नहीं हैं, इसलिए उसे सबसे अधिक भाग मिलता है। श्वेताम्बर कर्म प्रकृति की चूर्णिमें सकारण बँटवारेका यही क्रम दिखलाया गया है। सात प्रकारके और छह प्रकारके कर्मोंका बन्ध होते समय भी बँटवारेका यही क्रम जानना चाहिए। मात्र यहाँ जिस कर्मका बन्ध नहीं होता उसे भाग नहीं मिलता है, इतनी विशेषता है। उत्तर प्रकृतियोंमें कर्म परमाणुओंका बँटवारा करते समय बतलाया है कि आठ प्रकारके कर्मोंका बन्ध होते समय जो ज्ञानावरणीय कर्मको एक भाग मिलता है, वह चार भागोंमें विभक्त होकर आभिनिबोधिकज्ञानावरण, श्रतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण और मनःपर्ययज्ञानावरण इन चार कर्मोको प्राप्त होता है। यहाँ जो सर्वघाति प्रदेशाग्र है,वह भी इसी क्रमसे बँट जाता है। केवलज्ञानावरण सर्वघाति प्रकृति है, इसलिए उसे केवल सर्वघाति द्रव्य ही मिलता है, किन्तु देशघाति प्रकृतियोंको दोनों प्रकारका द्रव्य मिलता है। दर्शनावरणमें तीन देशघाति और छह सर्वघाति प्रकृतियाँ हैं। इसलिए देशघाति द्रव्य देशघातियोंको और सर्वघाति द्रव्य देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंको मिलता है । यहाँ जिनका बन्ध होता है उनमें यह बँटवारा होता है। वेदनीय कर्ममें जब जिसका बन्ध होता है, तब उसे ही समस्त भाग मिलता है। मोहनीय कर्मको जो देशघाति भाग मिलता है उसके दो भाग हो जाते हैंएक कषायवेदनीयका और दूसरा नोकषायवेदनीयका। इनमेंसे कषायवेदनीयका द्रव्य चार भागों में और नोकषायवेदनीयका द्रव्य बन्धके अनुसार पाँच भागों में विभक्त हो जाता है । तथा मोहनीय कर्मको जो सर्वधाति द्रव्य मिलता है उनमेंसे एक भाग चार संज्वलन कषायोंमें और दूसरा एक भाग बारह कषायोंमें और मिथ्यात्वमें विभक्त हो जाता है। अपने बन्ध समयमें आयु कमको जो भाग मिलता है वह जिस आयुका बन्ध होता है, उसीका होता है। नामकर्मको जो भाग मिलता है, उसके बन्धके अनुसार गति, जाति, शरीर आदि रूपसे अलग अलग विभाग हो जाते हैं। गोत्र कर्ममें जिसका बन्ध होता है, उसे ही समान भाग मिलता है। तथा अन्तराय कर्मको मिलनेवाला द्रव्य पाँच भागोंमें बँट जाता है। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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