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महाबन्ध
यह उत्तर प्रकृतियोंमें भागाभाग जानना चाहिए। श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिकी चर्णिमें भी इसका विचार किया गया है,पर वहाँ सर्वघाति द्रव्यका बँटवारा सर्वघाति और देशघाति दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंमें होता है, इसका उल्लेख देखनेमें नहीं आया। यहाँ दो बातें खास रूपसे ध्यान देने योग्य है-एक तो यह कि बन्धको प्राप्त होनेवाले द्रव्यमें सर्वघाति द्रव्य अनन्तवें भागप्रमाण और देशघाति द्रव्य अनन्त बहुभाग प्रमाण होता है। दूसरी यह कि चौबीस अनुयोगद्वारोंके अन्तमें अल्पबहुत्व अनुयोग द्वारमें ज्ञानावरणादि की उत्तर प्रकृतियोंमें मिलनेवाले द्रव्यका अल्पबहुत्व बतलाया है, इसलिए उसे ध्यानमें रखकर द्रव्यका बटवारा करना चाहिए।
चौबीस अनुयोगद्वार भागाभागसमुदाहारका कथन करनेके बाद चौबीस अनुयोगद्वारोंके अर्थपदके रूपमें मूलमें दो गाथाएँ आती हैं। ये दोनों गाथाएँ साधारणसे पाठ-भेदके साय श्वेताम्बर कर्मप्रकृतिमें भी उपलब्ध होती हैं (देखो बन्धनकरण गाथा २५, २६)। इनमेंसे प्रथम गाथामें सब द्रव्यके अनन्तवें भागप्रमाण सर्वघाति द्रव्यको अलग करके देशघाति द्रव्यका ज्ञानावरण और दर्शनावरणकी देशघाति उत्तर प्रकृतियोंमें तथा पाँच अन्तराय प्रकृतियोंमें बँटवारा दिखलाया गया है। और दूसरी गाथामें मोहनीयके देशधाति द्रव्यके दो भाग करके उनमेंसे एक भाग बँधनेवाली चार संज्वलनोंको और दूसरा भाग पाँच नोकषायोंको दिलाया गया है। वेदनीय, आयु और गोत्रके विषयमें यह व्यवस्था दी है कि इनमेंसे जिस कर्मकी जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उसे बँटवारेका द्रव्य मिलता है। यहाँ गाथामें नामकर्मके विषयमें कोई उल्लेख नहीं किया
इसप्रकार इस अर्थपदको देकर उसके अनुसार चौबीस अनुयोगद्वारोंके जाननेकी सूचना की है। वे चौबीस अनुयोगद्वार ये हैं-स्थानप्ररूपणा, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिबन्ध, अनादिबन्ध, ध्रवबन्ध, अध्रवबन्ध, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, सन्निकर्ष, नाना जीवोंकी अपेक्षा भाविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । आगे चौबीस अनुयोगद्वारोंका कथन समाप्त होनेपर भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि, अध्यवसान समुदाहार और जीवसमुदाहारका व्याख्यान किया गया है, इसलिए यहाँ इसी क्रमसे इन सबका परिचय दिया जाता है
स्थानप्ररूपणा-इस अनुयोगद्वारके दो भेद हैं-योगस्थानप्ररूपणा और प्रदेशबन्धप्ररूपणा । योगस्थानप्ररूपणामें पहले उत्कृष्ट और जघन्य योगस्थानोंका चौदह जीवसमासोंके आश्रयसे अल्पबहुत्व व प्रदेशअल्पबहुत्वका विचार करके दश अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे योगस्थानोंका विशेष विचार किया है। वे दश अनुयोगद्वार ये हैं-अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
वीर्य-विशेषके कारण मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्मप्रदेशों में जो चञ्चलता उत्पन्न होती है उसे योग कहते हैं। यद्यपि सर्व आत्मप्रदेशमें वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम आदि एक समान होता है, पर यह चञ्चलता सब आत्मप्रदेशोंमें एक समान नहीं होती किन्तु आत्माके जो प्रदेश मुख्यरूपसे व्यापाररत होते हैं उनमें वह सर्वाधिक पाई जाती है और उनसे लगे हुए प्रदेशों में कुछ कम पाई जाती है। इसप्रकार यद्यपि चञ्चलता तो सर्व आत्मप्रदेशों में पाई जाती है,पर वह उत्तरोत्तर हीन-हीन होती जाती है। इसलिए जीवके सब प्रदेशोंमें योगका तारतम्य स्थापित होकर एक योगस्थान बनता है। उदाहरणार्थ किसी मनुष्य के झुककर एक हाथसे पानीसे भरी हुई बालटीके उठानेपर उस हाथके आत्मप्रदेश में विशेष खिंचाव होता है । यहाँ हाथके सिवा शरीरके अन्य अवयवगत आत्मप्रदेश भी यद्यपि उस कार्यमें योगदान दे रहे हैं,पर उनमें वह खिंचाव उत्तरोत्तर हीन-हीन होता जाता है। इसलिए कार्यरूपमें परिणत हाथके आत्मप्रदेशोंसे
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