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________________ विषय-परिचय जितनी योगशक्ति अनुभव की जाती है; उतनी अन्यत्र नहीं। यही कारण है कि आत्माके सब प्रदेशों में योगशक्तिकी हीनाधिकता उत्पन्न होकर वह सब मिलकर एक स्थान बनाती है। यहाँ योगस्थानप्ररूपणा अनुयोगद्वारोंके आश्रयसे मुख्यरूपसे इसी बातका विचार किया गया है। पहले अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा में प्रत्येक आत्मप्रदेशमें योगशक्तिके कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं,यह बतलाया गया है। वर्गणाप्ररूपणा में कितने अविभागप्रतिच्छेदोंकी एक वर्गणा होती है यह बतलाया गया है। स्पर्धकप्ररूपणामें कितनी वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है,यह बतलाया गया है। अन्तरप्ररूपणामें एक स्पर्धककी अन्तिम वर्गणासे दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गगामें अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा कितना अन्तर होता है,इस बातका निर्देश किया गया है। स्थानप्ररूपणामें कितने स्पर्धक मिलकर एक योगस्थान बनता है, यह बतलाया गया है। अनन्तरोपनिधामें जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक प्रत्येक योगस्थानमें कितने स्पर्धक बढ़ते जाते हैं,यह बतलाया गया है। परम्परोपनिधामें जघन्य योगस्थानके स्पर्धकोंसे कितने योगस्थान जानेपर वे दूने होते जाते हैं,यह बतलाया गया है । समयप्ररूपणामें उत्कृष्टरूपसे चार, पाँच, छह, सात, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन और दो समय तक अवस्थित रहनेवाले कितने योगस्थान हैं.इसका विचार किया गया है। वृद्धिप्ररूपणामें लगातार कौन वृद्धि या हानि कितने कालतक हो सकती है,इस बातका विचार किया गया है। अल्पबहुत्वप्ररूपणामें अलग-अलग कालतक अवस्थित रहनेवाले योगस्थानोंका अल्पबदुत्व दिखलाया गया है। इन दस अनुयोगद्वारोंका विशेष खुलासा मूलके अनुवादमें विशेषार्थं देकर किया है, इसलिए वहाँ से जान लेना चाहिए। स्थानप्ररूपणाका दूसरा भेद प्रदेशबन्धस्थानप्ररूपणा है। इसमें यह बतलाया गया है कि जो योगस्थान हैं,वे ही प्रदेशबन्धस्थान है। किन्तु ज्ञानावरणादि प्रकृति विशेषके कारण वे विशेष अधिक हैं। सर्व-नोसर्वप्रदेशबन्ध-ज्ञानावरणादि कर्मोंका प्रदेशबन्ध होने पर वह सर्वबन्धरूप है या नोसर्वबन्धरूप है, इसका विचार इन दोनों अनुयोगद्वारों में किया गया है। जब सब प्रदेशबन्ध होने पर उसे सर्वबन्ध कहते हैं और जहाँ उससे न्यून प्रदेशबन्ध होता है उसे नोसर्वबन्ध कहते हैं। मात्र यह ओघ और आदेशसे दो प्रकारका है, इसलिए मूल और उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जहाँ जो सम्भव हो वहाँ उसे घटित कर लेना चाहिए । उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टप्रदेशबन्ध-ज्ञानावरणादिका प्रदेशबन्ध होने पर वह उत्कृष्टरूप है या अनुत्कृष्टरूप,इसका विचार इन दो अनुयोगद्वारों में किया गया है। जहाँ मूल और उत्तर प्रकृतियोंका ओघ और आदेशसे यथासम्भव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है, वहाँ उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कहलाता है और मूल व उत्तर प्रकृतियोंका इससे न्यून प्रदेशबन्ध होता है वह अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध कहलाता है । जघन्य-अजघन्यप्रदेशबन्ध-ज्ञानावरणादि मूल व उत्तर प्रकृतियोंका प्रदेशबन्ध होने पर वह जघन्य है या अजघन्य,इसका विचार इन दो अनुयोगद्वारोम किया गया है। बन्धके समय ओघ और आदेशसे यथासम्भव सबसे कम प्रदेशबन्ध होने पर वह जघन्य प्रदेशबन्ध कहलाता है और उससे अधिक प्रदेशबन्ध होने पर वह अजघन्य प्रदेशबन्ध कहलाता है। सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवप्रदेशबन्ध-इन चारों अनुयोगद्वारों में जो उस्कृष्ट आदि चार प्रकारका प्रदेशबन्ध बतलाया गया है वह सादि आदि किस रूप है, इस बातका विचार किया गया है। मूल व उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसका विशेष खुलासा हमने विशेषार्थके द्वारा उस प्रकरणके समय किया ही है, इसलिए वहाँ से जान लेना चाहिए । संक्षेपमें उनकी संदृष्टि इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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