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________________ सम्पादकीय प्रदेशबन्ध पटखण्डागमके छठे खण्डका चौथा भाग है । इसका सम्पादन व अनुवाद लिखकर प्रकाशन योग्य बनानेमें लगभग एक वर्ष लगा है। इसके सम्पादनके समय हमारे सामने दो प्रतियाँ रही हैं-एक प्रेसकापी और दूसरी ताम्रपत्र प्रति । मूल ताडपत्र प्रतिको हम इस बार भी नहीं प्राप्त कर सके । फिर भी जो भी सामग्री हमारे सामने रही है, उससे सम्पादन कार्यमें पर्याप्त सहायता मिली है और बहुत कुछ स्खलित अंशोंकी पूर्ति एक दूसरी प्रतिसे होती गई है। प्रकाशित हुए मूल ग्रन्थके देखनेसे विदित होगा कि इतना सब करनेपर भी बहुत स्थल ऐसे भी मिलेंगे जहाँ पाठको जोड़नेकी आवश्यकता पड़ी है। इस भागमें ऐसे छोटे-बड़े प" जो ऊपरसे जोड़े गये हैं सौसे अधिक हैं। हमने इन पाठोंको जोड़ते समय मुख्य रूपसे स्वामित्वके आधारसे विचार करके ही उन्हें जोड़ा है। पर वे जोड़े हुए अलग दिखलाई दें इसके लिए हमने उन्हें [ ] चतुष्कोण ब्रैकेट में अलगसे दिखला दिया है। यों तो अनुभागवन्धके प्रारम्भिक व मध्यके अंशके एक-दो ताड़पत्र नष्ट हो गये हैं । पर प्रदेशबन्धमें नष्ट हुए ताड़पत्रोंकी वह मात्रा काफी बढ़ गई है। इन ताड़पत्रोंके नष्ट होनेसे कई प्ररूपणाएँ स्खलित हो गई हैं जिसकी पूर्ति होना असम्भव है। बहुत प्रयत्न करनेके बाद भी त्रुटित हुए बड़े अंशांकी यथावत् पूर्ति नहीं की जा सकती है, इसलिए हमने उन्हें वैसा ही छोड़ दिया है। हाँ,जहाँ एकादि शब्द या वाक्यांश स्खलित हुआ है, उसकी अनुसन्धानपूर्वक पूर्ति अवश्य कर दी गई है और टिप्पणीमें त्रुटित अशको दिखला दिया गया है। इस भागमें त्रुटित हुए बड़े अंशांके लिए देखिए पृष्ठ ४८,८२,१५४ और १८२ । महाबन्धके प्रदेशबन्ध प्रकरणमें ऐसे तीन स्थल मिलते हैं जहाँ 'पवाइज्जंत और अन्य उपदेशका स्पष्टरूपसे मूल में निर्देश किया गया है। प्रथम उल्लेख भुजगार अनुयोगद्वारके अन्तर्गत मूल प्रकृतियोंकी अपेक्षा एक जीवकी अपेक्षा कालप्ररूपणामें किया गया है। वहाँ कहा गया है 'अवटि० पवाइज्जतेण उवदेसेण ज० ए०, उ० एक्कारससमयं । अण्णण पुण उवदेसेण ज० ए०, उ० पण्णारससम० ।' सात कर्मों के अवस्थितपदका पवाइज्जंत उपदेशके अनुसार जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल ग्यारह समय है । परन्तु अन्य उपदेशके अनुसार जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पन्द्रह समय है। दुसरा उल्लेख उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट सन्निकर्ष प्रकरणके समाश होनेपर नाना प्रकृतिबन्धके सन्निकर्पके साधनके लिए जो निदर्शन पद दिया है उसके प्रसंगसे आया है। वहाँ लिखा है 'पवाइजंतेण उवदेसेण मूलपगदिविसेसेण कम्मरस अवहारकालो थोवो। पिंडपगदिविसेसेण कम्मस्स अवहारकालो असंखेजगुणो। उत्तरपगदिविसेसेण कम्मरस अवहारकालो असंखेजगुणो ।.........उवदेसेण मूलपगदिविसेसो आवलियवग्गमूलस्स असंखेजदिभागो। पिंडपगदिविसेसो पलिदोवमवग्गमूलस्स असंखेजदि० । उत्तरपगदिविसेसो पलिदोव० असंखेजदि०। 'पवाइज्जंत'उपदेशके अनुसार मूलप्रकृति विशेषकी अपेक्षाकर्मका अवहारकाल स्तोक है। पिण्डप्रकृतिविशेषकी अपेक्षा कर्मका अवहारकाल असंख्यातगुणा है। उत्तरप्रकृति विशेषकी अपेक्षा कमका अवहारकाल असंख्यातगुणा है।...उपदेशके अनुसार मूलप्रकृतिविशेष आवलिके वर्गमूलका असंख्यातवां भागप्रमाण है। पिण्डप्रकृतिविशेष पत्योपमके वर्गमूलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। उत्तरप्रकृतिविशेष पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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