SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५ णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा छावहिसा० दे० । आउ० आभिणिभंगो । णवरि अवहि० णाणा भंगो। उवसम० मणजोगिभंगो। १२४. सण्णी पंचिंदियपज्जत्तभंगो। आहार० सत्तण्णं क. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ. अंतो० । अवढि०-अवत्त० ज० ए० अंतो०, उ० अंगुल० असंखें। आउ० ओघं । णवरि अवट्टि. सगहिदी भाणिदव्वा । एवं अंतरं समत्तं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो। १२५. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सत्तणं क० भुज०-अप्प०-अवहि० णियमा अस्थि । सिया एदे य अवत्तगे य। सिया एदे य अवत्तगा य । आउ० भुज०-अप्प०-अवहि०-अवत्त० णियमा अस्थि । एवं पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर है। आयुकमेका भङ्ग आभिनिबोधिक ज्ञानके समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल छयासठ सागर है, परन्तु यहाँ अन्तर लाना है, इसलिए यहाँ सात कर्मों के अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छयासठ सागर कहा है। आयुकर्मके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर ज्ञानावरणके समान है यह कहनेका भी यही अभिप्राय है । उपशमसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए इसमें मनोयोगके समान अन्तरकाल प्राप्त होनेसे वह उसके समान कहा है। १२४. संज्ञी जीवोंमें पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। आहारक जीवोंमें सात कर्मोके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित और अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण कहना चाहिए। विशेषार्थ-आहारक जीवको उत्कृष्ट कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए यहाँ सात कर्मों के अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। आयुकर्मके अवस्थितपदका अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है इसके कहनेका भी यही तात्पर्य है। इस प्रकार अन्तरकाल समाप्त हुआ। नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम । १२५. नाना जीवोंका आलम्बन लेकर भजविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सात कर्मों के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदवाले जीव नियमसे हैं । कदाचित् ये नाना जीव हैं और अवक्तव्यपदवाला एक जीव है । कदाचित् ये नाना जीव हैं और अवक्तव्यपदवाले नाना जीव हैं। आयुकमेके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदवाले जीव नियमसे हैं । इस प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, अचक्षुदर्शनी, १. सा० प्रतौ सगहिदी० एवं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy