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________________ ६४ महाबंचे पदेसबंधाहियारे उ० पुव्वकोडितिभागं देसू० । एवं संजद - सामाइ ० छेदो ० - परिहार ० -संजदासंज० । सुहुमसं० अवगदवेदभंगो । अवत्त० णत्थि अंतरं । चक्खु० अचक्खु ०-भवसि० ओषं । तसपजत्त भंगो । १२१. छल्लेस्साणं सत्तणं क० भुज० अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवहि ० ज ए०, उ० तैंत्तीसं सत्तारस- सत्त-बे- अहारस-बत्तीसं० सादि० । आउ० णिरयभंगो । वरि सुक्काए [ सत्तण्णं क० ] अवत्त० णत्थि अंतरं । १२२. खड्ग० सत्तणं क० भुज० अप्प० ज० [ उ० ] ओघं । अवद्वि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो० उ० दोणं पि तैंतीसं० सादि० । आउ० तिण्णं पि ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो० उ० दोष्णं पि बत्तीसं० सादि० । 9 १२३. वेदग० सत्तणं क० दो पदा ओघं । अवद्वि० ज० ए०, उ० उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिका कुछ कम त्रिभागप्रमाण है । इस प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें जानना चाहिए । सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में अपगतवेदी जीवोंके समान भङ्ग है। मात्र इनमें अवक्तव्यपद्का अन्तरकाल नहीं है। चक्षदर्शनी जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है । भचक्षुदर्शनी और भव्य जीवों में ओघके समान भङ्ग है । विशेषार्थ – मन:पर्ययज्ञानका काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसलिए उसमें सात कर्मों के अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण कहा है। इस ज्ञानमें आयुकर्मका उत्कृष्ट बन्धान्तर कुछ कम पूर्वकोटिका त्रिभागप्रमाण है, इसलिए इसमें आयुकर्मके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट है । १२१. छह लेश्याओंमें सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो सागर, साधिक अठारह सागर और साधिक बत्तीस सागर है। आयुकर्मका भङ्ग नारकियों के समान है । इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्या में सात कर्मों के अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है । विशेषार्थ – शुक्ललेश्यामें दो बार उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव नहीं, क्योंकि नीचे आने पर लेश्या बदल जाती है, अतएव शुक्ललेश्यामें सात कर्मों के अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध किया है । शेष कथन स्पष्ट ही है । १२२. क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सात कर्मोके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघ के समान है । अवस्थितंपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है । आयुकर्मके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर दोनों ही पदोंका साधिक बत्तीस सागर है । विशेषार्थ - क्षायिकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है, इसलिये इसमें सात कम के अवस्थित और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है। १२३. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में सात कर्मों के दो पदोंका भङ्ग ओघ के समान है । अवस्थित For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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