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________________ अंतरपरुवणा ११७. लोभ० मोह-आउ० अवत्त० णत्थि अंतरं । सेसाणं कोधभंगो। ११८. मदि०-सुद०-असंज०-अब्भवसि०-मिच्छा०-[अ]सण्णि त्ति सत्तण्णं क० तिण्णि प० आउ० चत्तारि पदा ओघभंगो। णवरि असण्णीसु आउ० भुज-अप्प० ज० ए०, अवस० ज० अंतो०, उक्क० तिण्णं पि पुवकोडी सादि० । विभंगे अटुण्णं० क० णिरयोघं। ११९. आभिणि-सुद०-ओधि. सत्तण्णं क. भुज०-अप्प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवट्टि० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० छावहिसाग० सादि० । आउ० ओघं । णवरि अवडि० णाणाभंगो । एवं ओधिदं -सम्मादि। १२०. मणपन्ज. सत्तण्णं क० भुज०-अप्प० ओघं । अवहि ज० ए०, अवत्त. ज. अंतो०, उ० पुव्वकोडी दे० । आउ० तिणि प० ज० ए०, अवत्त'० ज० अंतो०, ११७. लोभकषायमें मोहनीय और आयुकर्मके अवक्तव्यपदका अन्तरंकाल नहीं है। शेष पदोंका भङ्ग क्रोध कषायके समान है। बिशेषार्थ-लोभकषायमें मोहनीयका अवक्तव्यपद भी सम्भव है । इतनी विशेषता बतलानेके लिए इसमें अन्तर प्ररूपणा शेष तीन कषायोंकी अन्तर प्ररूपणासे अलग कही है। यहाँ लोभकषायके उदयमें दो बार उपशमश्रेणिकी प्राप्ति और दो बार आयुकर्मका बन्ध सम्भव नहीं है, इसलिए इनके अवक्तव्यपदका निषेध किया है । शेष कथन सुगम है। ११८. मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों में सात कर्मो के तीन पदोंका और आयु कर्मके चार पदोंका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियोंमें आयुकर्मके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटि है। विभङ्गज्ञानी जीवोंमें आठों कोका भङ्ग सामान्य नारकियोंके समान है। विशेषार्थ-असंज्ञियोंकी उत्कृष्ट भवस्थिति एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसलिए इनमें आयुकर्मके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ११९. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और तीनोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर है । आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवों में जानना चाहिए । विशेषार्थ—इन तीन ज्ञानों का उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है, इसलिए इनमें सात कर्मों के अवस्थित और अवक्तव्यपदका तथा आयुकर्मके अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागर कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। १२०. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। आयुकर्मके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और चारों पदों का १. ता०प्रा०प्रत्योः ए० उ० अवत्त इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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