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________________ ६२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ११५. कायजोगीसु सत्तण्णं क० तिण्णि प० ओघं । अवत्त० णत्थि अंतरं । आउ० एइंदियभंगो। ओरालियमि० अपजत्तभंगो। वेउव्वियमि० सत्तणं क. आहारमि० अट्ठण्णं क० कम्म०-अणाहार०' सत्तण्णं क. भुज० णत्थि अंतरं । एत्ताणं एगपदं । ११६. इत्थि०-पुरिस०-णस० सत्तण्णं क० दो पदा ओघं । अवढि० ज० ए०, उ० पलिदो०सदपुध० सागरो०सदपुध० सेढीए असंखे । आउ० भुज०- अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतोमु०, उ. पणवण्णं पलि० सादि० तेत्तीसं सा० सादिरे । अवढि णाणाभंगो। अवगद० सत्तण्णं क० तिण्णि प० ज० ए०, उ० अंतो० । अवत्त ० णत्थि अंतरं। गिनाई हैं उनमें यह अन्तरप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उसे इन योगोंकी अन्तरप्ररूपणाके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इसमें जो अपवाद हैं उनका अलगसे उल्लेख किया यथा-औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्षप्रमाण होनेसे उसमें आयुकर्मके चारों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक सात हजार वर्षप्रमाण और सात कर्मोंके अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम बाईस हजार वर्षप्रमाण प्राप्त होनेसे उसका अलगसे निर्देश किया है। शेष कथन सुगम है। ११५. काययोगी जीवोंमें सात कर्मों के तीन पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवक्तव्य पदका अन्तरकाल नहीं है। आयुकर्मका भङ्ग एकेन्द्रियोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोके, आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें आठ कर्मों के और कार्मणाकाययोगी व अनाहारक जीवोंमें सात कर्मों के भुजगारपद्का अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि इन मार्गणाओंमें एक पद है। विशेषार्थ-सात कर्मों के अवक्तव्यपदका अन्तर उपश्रमश्रेणिमें दो बार आरोहणअवरोहण करनेसे होता है। किन्तु इतने कालतक काययोगका बना रहना सम्भव नहीं है, इसलिए इस योगमें अवक्तव्यपदके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ११६. स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें सात कोके दो पदोंका भङ्ग ओघके समान है। अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे सौ पल्यवृभक्त्वप्रमाण, सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण और जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आयुकर्मके भुजगार और अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक पचवन पल्य और साधिक तेतीस सागर है। अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें सात कर्मो के तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यपदका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ-तीन वेदोंमें सात कर्मो के अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी कायस्थितिको ध्यानमें रख कर कहा है। यद्यपि नपुंसकवेदकी कायस्थिति अनन्तकालप्रमाण है पर यह पहले ही सूचित कर आये हैं कि जिनकी कायस्थिति अनन्तकाल प्रमाण है उनमें सब कर्मो के अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। तथा तीनों वेदोंमें आयुकमके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी साधिक भवनि प्रमाण कहा गया है। कारण स्पष्ट है। शेष कथन सुगम है, क्योंकि उसका पहले अनेक बार स्पष्टीकरण कर आये हैं। १. आ० प्रती अटण्णं क० अणाहार इति पाठः ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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