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________________ अंतरपरूवणा ज० ए०, उ० तिण्णि पलि. पुन्वकोडिपुधत्तं । आउ० भुज-अप्प०-अवत्त० तिरिक्खोघं । अवढि० णाणा भंगो। पंचिंतिरिक्ख अपज० सत्तण्णं क० भुज-अप्प०-अवढि० ज० ए०, उ० अंतो० । आउ० तिण्णि प० णाणा०भंगो। अवत्त० ज० उ० अंतो। एवं० सव्वअपजत्तयाणं तसाणं थावराणं च सव्वसुहुमपजत्तापजत्ताणं च । ११०. मणुस०३ सत्तण्णं क० तिण्णि प० आउ० चत्तारि पदापंचिं०तिरि०भंगो। सत्तण्णं क० अवत्त० ज० अंतो०, उ० पुव्वकोडिपुध० । एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। आयुकर्मके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यपदका भङ्ग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। तथा अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सात कर्मो के भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आयुकर्मके तीन पदोंका भङ्ग ज्ञानावरणके समान है । तथा अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार अर्थात् पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान अस और स्थावर सब अपर्याप्त तथा सब सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-तियश्चोंमें सात कर्मोंका अवक्तव्यपद सम्भव नहीं है, क्योंकि यह पद उपशमश्रेणिसे गिरते समय होता है । शेष भङ्ग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है। यहाँ आयुकर्मका बन्धान्तर साधिक तीन पल्य है, इसलिए इसके भुजगार और अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है। इनका जघन्य अन्तर एक समय स्पष्ट ही है। ओघसे आयुकर्मके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो यह अन्तर तिर्यञ्चोंमें ही घटित होता है, अतः इसे ओघके समान जाननेको सूचना की है । तिर्यञ्चोंमें आयुकर्मका दो बार बन्ध कम से कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक साधिक तीन पल्यके अन्तरसे होता है, अतः यहाँ इसके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे उक्त प्रमाण कहा है। पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चत्रिकमें इनकी कायस्थितिको ध्यानमें रखकर अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। आयुर्मके अवस्थितपदका भङ्ग ज्ञानावरण के समान कहनेका भी यही कारण है। पश्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंकी कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है और आयुकर्मका दो बार बन्ध कम से कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे होता है,यह देखकर इनमें आठों कोंके तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा आयुकर्मके अवक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ अन्य सब अपर्याप्तकोंमें तथा सूक्ष्म पर्याप्तकोंमें यह व्यवस्था बन जाती है इसलिए उनका भङ्ग पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान कहा है। . ११०. मनुष्यत्रिक में सात कर्मोके तीन पदोंका और आयुकर्मके चार पदोंका भङ्ग पश्चेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान है । तथा सात कर्मोके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकको कायस्थिति आदि पश्चेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान है, इसलिए इनमें सात कर्मों के तीन पदोंका और आयुकर्मके चार पदोंका भङ्ग पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चोंके समान प्राप्त होनेसे वैसा कहा है। मात्र मनुष्यत्रिकमें सात कोका अवक्तव्यपद भी होता है जो पश्चेन्द्रियतियञ्चोंमें नहीं होता, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अलगसे कहा है। उसमें जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तो स्पष्ट ही है, इसका हम पहले स्पष्टीकरण भी कर आये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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