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महाबंचे पदेसंबंधाहियारे
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१०८. णिरएस सत्तणं क० भुज० अप्प० ज० ए०, [ उ० अंतो० । अवट्टि● ज० ए०, ] उ० तैंतीसं० देसू० अंतोमुहुत्तेण दोहि समएहि य । आउ० तिष्णि पदा० ज० ए०, उ० छम्मासं देणं । अवत्त० ज० अंतो०, उ० छम्मासं देसू० । एवं सव्वणिरयाणं अप्पप्पणो अंतरं दव्वं ।
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१०९. तिरिक्खेसु सत्तण्णं क० ओघं अवत्तव्वं वञ्ज । आउ० भुज० -अप्प० ज० ए०, उ० तिणि पलि० सादि० । अवट्टि • ओघं । अवत्त० ज० अंतो०, उक० तिष्णि पलि० सादि० | पंचिं० तिरि०३ सत्तण्णं क० भुज० अप्प० ओघं । अवहि •
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साधिक तेतीस सागर कहा है । इसी प्रकार यहाँ आयुकर्मके अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर घटित कर लेना चाहिये ।
१०८. नारकियों में सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त तथा दो समय कम तेतीस सागर है। आयुकर्म के तीन पदोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है। अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना है । इसी प्रकार सब नारकियोंमें अपना-अपना अन्तर जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - ओघसे सात कर्मोंके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त घटित कर लेना चाहिए। इनके अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय स्पष्ट ही है । तथा इसका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त और दो समय कम जो तेतीस सागर बतलाया है सो उसका कारण यह है कि उत्पन्न होते समय वैक्रियिकमिश्रकाययोगके रहते हुए अवस्थित पद नहीं होता । उसके बाद शरीर पर्याप्ति के प्राप्त होनेके प्रथम समय में जो बन्ध हुआ वही उसके अगले समयमें भी हुआ और मध्य में इनका भुजगार और अल्पतर पद होता रहा । फिर मरण के समय पुनः अवस्थित पद हुआ । इस प्रकार दो समय अवस्थितके और प्रारम्भका अन्तर्मुहूर्त काल तेतीस सागर मेंसे कम कर देने पर अवस्थितपदका उक्त उत्कृष्ट अन्तरकाल आता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ आयुकर्मके तीन पद एक समयके अन्तर से हो सकते हैं और कुछ कम छह महीना के अन्तरसे भी, इसलिए इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छह महीना कहा है। इसी प्रकार इसके अवक्तव्यपदका उत्कृष्ट अन्तर भी कुछ कम छह महीना घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसके अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर जो अन्तर्मुहूर्त कहा है सो इसका कारण यह है कि दो बार आयुकर्मके बन्धमें जघन्य अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त - प्रमाण प्राप्त होता है । यह सामान्य नारकियोंकी अपेक्षा अन्तरकालका विचार हुआ । प्रत्येक पृथिवीमें इसी प्रकार अन्तरकाल प्राप्त होता है । मात्र अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर एक अन्तर्मुहूर्त और दो समय कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जान लेना चाहिए । कारण स्पष्ट है ।
१०९. तिर्यों में सात कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है । मात्र अवक्तव्यपदको छोड़कर यह अन्तरकाल है । आयुकर्मके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है । अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । पचेन्द्रियतिर्यचत्रि कमें सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका भङ्ग ओघके समान है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर
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