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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे १११. देवाणं सत्तण्णं क. भुज-अप्प० ज० एग०, उ० अंतो० । अवहि. ज. ए०, उ० तेत्तीसं० दे० । आउ० णिरयभंगो। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो अंतरं णेदव्वं । ११२. एइंदिएसु सत्तण्णं क० ओघं। आउ० अवढि० ओघं । भुज-अप्प० ज० ए०, अवत्त० ज० अंतो०, उ० बावीसं० वाससहस्साणि सादि० । एवं सव्वएइंदि०-विगलिंदि०-पंचकायाणं अप्पप्पणो अंतरं णेदव्वं । णवरि अणंतहाणेसु असंखेंजालोगट्ठाणेसु य सेढीए असंखेजदिभागो कादव्यो।। हैं। उत्कृष्ट अन्तरकाल जो पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है सो इसका कारण यह है कि मनुष्यत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति जो पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है उसमें से तीन पल्य इसलिए अलग कर दिये हैं, क्योंकि उसमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसके बाद जो कायस्थिति शेष रहती है उसके प्रारम्भमें और अन्तमें उपशमश्रेणिपर आरोहण कराकर उतारते समय इन कर्मोका अवक्तव्यबन्ध करानेसे उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है, इसलिए मनुष्यत्रिकमें सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तप्रमाण कहा है। १११. देवोंमें सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार सब देवोंमें अपना अपना अन्तर जानना चाहिए। विशेषार्थ-जिस प्रकार ओघसे सात कर्मों के भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए । यहाँ इन कर्मोका अवस्थितपद कम से कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरके अन्तरसे हो सकता है, इसलिए इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है । देवोंमें नारकियोंके समान आयुबन्धका नियम है, इसलिए इनमें आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान कहा है। देवोंके अवान्तर भेदोंमें यह अन्तरप्ररूपणा इसी प्रकार है । मात्र सात कर्मों के अवस्थितपदका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होनेसे उसकी सूचना अलगसे की है। ११२. एकेन्द्रियोंमें सात कर्मोका भङ्ग ओघके समान है। आयुकर्मके अवस्थित पदका भङ्ग ओघके समान है । आयुकर्मके भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्यपदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्सष्ट अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवोंमें अपना अपना अन्तर जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जिनको कायस्थिति अनन्तकाल और असंख्यात लोकप्रमाण है. उनमें आठों कर्मों के अवस्थित पदका उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण करना चाहिए। विशेषार्थ—एकेन्द्रियों में सात कर्मोंका अवक्तव्यपद नहीं है । शेष भङ्ग वा आयुकर्मके अवस्थितपदका भङ्ग ओघके समान है यह स्पष्ट ही है । अब शेष रहे आयुकर्मके तीन पद सो इनमेंसे भुजगार और अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय और अवक्तव्यपदका ज अन्तर अन्तर्मुहूर्त पहले अनेक बार घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए । तथा एकेन्द्रियोंमें आयुकर्मके प्रकृतिबन्धका अन्तर साधिक बाईस हजार वर्ष है, इसलिए यहाँ इन तीन पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्तप्रमाण कहा है, क्योंकि मध्यके इतने कालतक आयुकर्मका बन्ध संभव न होनेसे यह अन्तरकाल बन जाता है । यहाँ एकेन्द्रियोंके अवान्तर भेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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