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________________ भुजगारबंचे समुक्त्तिणा मणपज०-संज-सामाइ०-छेदो-परिहार०-संजदासंज. सव्वत्थोवा आउ० जह० । णामा गोद० ज० विसे० । णाणा०-दसणा०-अंतरा० ज० विसे । मोह. ज. विसे० । वेदणी. ज. विसे । एवं चदुवीसमणियोगद्दाराणि समत्ताणि । भुजगारबंधो १०१. एत्तो भुजगारबंधे ति तत्थ इमं अहपदं-जो एण्णि पदेसग्गं बंधदि अणंतरोसकाविदविदिक्कते समए अप्पदरादो बहुदरं बंधदि त्ति एसो भुजगारबंधो णाम । अप्पदरबंधे त्ति तत्थ इमं अट्ठपदं-यो एण्णि पदेसग्गं बंधदि अणंतरउस्सकाविदविदिक्कते समए बहुदरादो अप्पदरं बंधदि त्ति एसो अप्पदरबंधो णाम । अवहिदबंधे ति तत्थ इमं अहपदं-एण्हि पदेसग्गं बंधदि अणंतरउस्सकाविदओसक्काविदविदिक्कते समए तत्तियं तत्तियं चेव बंधदि त्ति एसो अवहिदबंधो णाम । अवत्तव्वबंधे ति तत्थ इमं अट्ठपदं-अबंधादो बंधदि त्ति एसो अवत्तव्वबंधो णाम । एदेण अट्टपदेण तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणा याव अप्पाबहुगे त्ति । समुक्कित्तणा १०२. समुक्त्तिणदाए दुवि-ओघे० आदे०। ओषे० अट्ठण्णं क. अत्थि भुज० अप्प० अवढि० अवत्तव्वबंधगा य । एवं मणुस०३-पंचिं०-तस०२-पंचआयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध सबसे स्तोक है। इससे नाम और गोत्रकर्मके जघन्य प्रदेशबन्ध दोनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मके जघन्य प्रदेशबन्ध तीनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इससे मोहनीयकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीयकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए । भुजगारबन्ध १०१. यहाँसे भुजगारबन्धका प्रकरण है। उसमें यह अर्थपद है-जो इस समय प्रदेशाग्र बाँधता है,वह अनन्तर अपकर्षित व्यतिक्रान्त समयमें बाँधे गये अल्पतरसे बहुतरको बाँधता है, यह भुजगारबन्ध है। अल्पतरका प्रकरण है। उसमें यह अर्थपद है जो इस समय प्रदेशाग्र बाँधता है वह अनन्तर उत्कर्षित व्यतिक्रान्त समयमें बाँधे गये बहुतरसे अल्पतरको बाँधता है,यह अल्पतरबन्ध है। अवस्थितबन्धका प्रकरण है। उसमें यह अर्थपद है-जो इस समय प्रदेशाग्र बाँधता है,वह अनन्तर उत्कर्षको प्राप्त हुए या अपकर्षको प्राप्त हुए व्यतिक्रान्त समयसे उतने ही उतने ही प्रदेशाग्र बाँधता है, यह अवस्थितबन्ध है। अवक्तव्यबन्धका प्रकरण है। उसमें यह अर्थपद है-जो अबन्धसे बन्ध करता है यह अवक्तव्यबन्ध है। इस अर्थपदके अनुसार ये तेरह अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तना १०२. समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आठ कर्मोके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यपदके बन्धक जीव हैं। इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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