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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अप्पाबहुगपरूवणा ९९. अप्पाबहुगं दुवि०-[ जह० उक्क०। उक-पगदं। दुवि०-]। ओघे० आदे० । ओघे० सव्वत्थोवा आउ० उक्क० पदे०बंधो । मोह० उ०पदे० विसे० । णामा गोदाणं उ० प०बं० दो वि तु० विसे । णाणाव०-दसणा०-अंतरा० उ० तिण्णि वि० विसे । वेदणी० उ० विसे० । एवं ओघभंगो मणुस०३-पंचि०-तस०२-पंचमण०पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि-अवग०-लोभक०--आभिणि-सुद-ओधिणा०-मणपज०संज०-चक्खुदं०-अचक्खुदं०-ओधिदं०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-खड्ग०-उवसम०सण्णि-आहारग ति। सेसाणं णिरयादीणं याव अणाहारग ति सव्वत्थोवा आउ० उ० पदे०बंधो । णामा-गोद० दो वि० तु.विसे० । णाणा०दसणा०-अंतरा उ० तिण्णि वितु० विसे । मोह० विसे । वेदणीयं विसे । १००. जह० पग०। दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० सव्वत्थोवा णामागोदा० ज० प०बं० । णाणा०-दसणा०-अंतरा० ज० तिण्णि वि तु० विसे० । मोह० ज० विसे० । वेदणी. ज. विसे० । आउ० ज० असंखेंजगुः । एवं ओघभंगो सव्वाणं याव अणाहारग त्ति । णवरि पंचमण-पंचवचि०-आहार-आहारमि०-विभंग० अल्पवहुत्वग्ररूपणा ९९. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आयुकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सबसे स्तोक है । मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है । नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध दोनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तीनों ही तुल्य होकर विशेष अधिक हैं । वेदनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है। इस प्रकार ओघके समान मनुष्यत्रिक, पञ्चेन्द्रियद्विक, त्रसद्विक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जोवोंमें जानना चाहिए । शेष नरकगति आदिसे लेकर अनाहारक मार्गणातकके जीवोंमें आयुकर्मका उत्कृष्टप्रदेशबन्ध सबसे स्तोक है। इससे नाम और गोत्रकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध दोनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं । इनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध तीनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इनसे मोहनीककर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है । इससे वेदनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है। १००. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे नाम और गोत्रकर्मके जघन्य प्रदेशबन्ध सबसे स्तोक हैं। इनसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायके जघन्य प्रदेशबन्ध तीनों ही परस्पर तुल्य होकर विशेष अधिक हैं। इनसे मोहनीयकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है। इससे वेदनीयकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध विशेष अधिक है। इससे आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध असंख्यातगुणा है। इस प्रकार ओघके समान अनाहारक पर्यन्त सव मार्गणाओंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि पाँचों मनोयोगी पाँचों वचनयोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, विभङ्गज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंमें For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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