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________________ भावपरूवणा ५१ ९६. जह० पदं । दुवि० - ओघे० आदे० । ओघे० अङ्कणं क० ज० अज० तिथ अंतरं । एवं अनंतरासीणं असंखेजलोगरासीणं । सेसाणं उक्कस्तभंगो । ९७. भावं दुविधं - जह० आदे० | ओघे० अण्णं क० उ० एवं' अणाहारगति दव्वं । भावपरूवणा उक्क० च । उक्क० पदे ० पगदं । दुवि० - ओघे ० अणु०बंधग त्ति को भावो १ ओदइगो भावो ९८. जह० पदं । दुवि० - ओघे० आदे० । ओ० अटुण्णं क० ज० अज०त्तिको भाव ? ओदइगो भावो । एवं याव अणाहारग त्ति दव्वं । भागप्रमाण कहा है। जीवराशि अनन्त है, अतः सब कर्मों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध में अन्तर पड़ना सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इसके अन्तरकालका निषेध किया है। आगे जिन मार्गणाओं का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल सर्वदा है, उनमें अन्तर घटित नहीं होता । किन्तु जिनजिन मार्गणाओं में सर्वदा काल नहीं है, उनमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान बन जाता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका अन्तरकाल प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान प्राप्त होता है । उदाहरणार्थ नरकगति लीजिए। इसमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका काल सर्वदा नहीं है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है । तथा इसमें आयुकर्मके सिवा शेष कर्मोंका सदा प्रकृतिबन्ध होता रहता है, अतः अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता । मात्र आयुकर्मका सदा बन्ध नहीं होता, अतः प्रकृतिबन्धके अन्तरकालके समान इसमें आयुकर्मके प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल बन जाता है । इसी प्रकार सर्वत्र अपनी-अपनी विशेषताको जानकर अन्तरकाल ले आना चाहिए । ९६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे आठों कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है । इस प्रकार अनन्तराशि और असंख्यात लोकप्रमाण राशियों में जानना चाहिए । शेष राशियोंका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । विशेषार्थ — स्वामित्व को देखते हुए यहाँ ओघसे और अनन्त संख्यावाली व असंख्यात लोकप्रमाण संख्यावाली मार्गणाओं में आठों कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होनेसे उसका निषेध किया है। किन्तु स्वामित्व को देखते हुए शेष मार्गणाओं में अन्तरकाल उत्कृष्ट प्ररूपणाके समान बन जाता है, इसलिए इसे उत्कृष्ट प्ररूपणा के समान जाननेकी सूचना की है। भावप्ररूपणा ९७. भाव दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कष्ट । उत्कृष्टेका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकार- : का है-ओघ और आदेश । ओघसे आठ कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके बन्धक जीवोंका कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । ९८. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आठों कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका कौन-सा भाव है ? औदयिक भाव है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक ले जाना चाहिए । १. श्रा० प्रतौ भावे । एवं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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