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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे अंतरपरूवणा __९५. अंतरं' दुवि०-ज० उ० । उ० पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० अण्णं क० उक्क० पदेसबंधंतरं केवचिरं कालदो होदि ? जह० ए०, उ० सेढीए असंखे । अणु० णत्थि अंतरं । एवं एदेण' बीजेण एसिं सव्वद्धा तेसिं णत्थि अंतरं। एसिं णोसम्बद्धा तेसिं उक्क० ज० ए०, उ० सेढीए असं० । अणु० अट्ठण्णं पि क० अप्पप्पणो पगदिअंतरं कादव्वं ।। उत्पत्ति और स्वामित्वको देखकर सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनमें सात कर्मो के अजघन्य प्रदेशबन्धका काल सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है। आगे असंख्यात संख्यावाली राशियोंमें कालका निर्देश किया है। उसमें नारकियोंका समावेश है ही, अतः उसे ध्यानमें रखकर यहाँ बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त आदिमें आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धके जघन्य और उत्कृष्ट कालके जाननेकी सूचना की है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें जो असंज्ञी मरकर नरकमें और देवोंमें उत्पन्न होता है, उसके प्रथम समयमें जघन्य अनुभाग होता है। ऐसे जीव लगातार कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही उत्पन्न होते हैं, अतः इस योगमें सात कर्मोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा इस योगका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इसमें सात कर्मों के अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे उक्त कालप्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वमें अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान ही घटित कर लेना चाहिये। क्योंकि इन मार्गणाओंका काल समान है। किन्तु उपशमसम्यक्त्वके साथ मरकर देव होते हैं, उनके ही इस सम्यक्त्वमें सात कोका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। ऐसे जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक संख्यात समय तक ही मरकर उत्पन्न होते हैं। अतः इस सम्यक्त्वमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। अन्तरप्ररूपणा ९५. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आठ कर्मो के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नहीं है। इस प्रकार इस बीजपदके अनुसार जिनका काल सर्वदा है,उनमें अन्तरकाल नहीं है । तथा जिनका काल सर्वदा नहीं है,उनमें उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर जगभेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका आठों ही कोका अपने-अपने प्रकृतिबन्धके अन्तरके समान अन्तर करना चाहिए । विशेषार्थ-सब योगस्थान जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । यह सम्भव है कि नाना जीवोंके जो योग उत्कृष्ट प्रदेशबन्धमें निमित्त है,वह एक समयके अन्तरसे भी हो जावे और एक बार होकर पुनः क्रमसे सब योगस्थानोंके हो जानेके बाद होवे, इसलिए यहाँ सब कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर जगश्रेणिके असंख्यातवें १. ता०प्रतौ पगदिकाले कादब्यो। अंतरं इति पाठः । २. पाम्प्रतौ अंतरं । एदेण इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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