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________________ कालपरूवणा ४९ 1 ९४. जण्णए पदं । दुवि० - ओघे० आदे० । ओघे० अटुण्णं क० ज० अज० सव्वद्धा' | एवं ओघभंगो सव्वअणंतरासीणं सव्वएइंदि० पंचकायाणं च । वरि बादर पुढ० आउ० तेउ०- वाउ०- पत्ते ० पञ्ज० ज० ज० ए०, उ० आवलि० असं० । अज० सव्वद्धा । आउ० ज० अज० णिरयभंगो । वेउव्वियमि० सत्तण्णं क० ज० ज० ए०, उ० आवलि० असं० । अज० ज० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखें० । अवगद ०सुहुमसंप० उकस्सभंगो । उवसम० सत्तण्णं क० ज०ज० ए०, उ० संखेजसम० । अज० ज० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे । एवं परिमाणे असंखेज्जरासीणं तेसिं ज० ए०, उ० आवलि० असंखे । अज० अप्पप्पणो पगदिकालो कादव्वो । एवं संखजरासीणं तेसिंर ज० ए०, उ० संखेजसम० । अज० अप्पप्पणो पगदिकालो कादव्वो । एवं कालं सम्मत्तं । ९४. जघन्य कालका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे आठ कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका काल सर्वदा है । इसी प्रकार ओघके समान सब अनन्तराशि, सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकायिक जीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशबन्धका काल सर्वदा है । आयुकर्मके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका काल नारकियोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सात कर्मोंके जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवों में उत्कृष्टके समान संग है । उपशमसम्यक्त्वमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशवन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार परिमाण में जो असंख्यात राशियाँ हैं उनमें जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशबन्ध का काल अपने-अपने प्रकृतिबन्धके कालके समान करना चाहिये। इसी प्रकार जो संख्यात राशियाँ हैं, उनमें जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका काल अपने-अपने प्रकृतिबन्धके कालके समान करना चाहिये । विशेषार्थ — ओघसे आठों कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके यथायोग्य समय में योग्य सामग्रीके मिलने पर होता है । यतः ऐसे जीव निरन्तर पाये जाते हैं, अतः ओघसे जघन्य प्रदेशबन्धका काल सर्वदा कहा है । तथा ओघसे अजघन्य प्रदेशबन्ध का काल सर्वदा है, यह स्पष्ट ही है । सब अनन्त राशियोंमें, एकेन्द्रियों और पाँच स्थावरकायिकों में इसी प्रकार अपने स्वामित्वको जान कर आठों कर्मोंके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका सर्वदा काल ले आना चाहिये । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त आदि पाँच कायिक जीवोंमें उनकी १. ताप्रतौ सव्वा (द्धा) इति पाठः । अग्रेऽपि क्वचिदेवमेव पाठः । २ ता०प्रतौ संखेजरासी तेसिं इति पाठः । ७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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