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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ९३. मणुस०३ पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि सत्तण्णं क० अणु० ज० ए०, उक्क. अंतो० । देवाणं णिरयभंगो। एवं सव्वदेवाणं अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी णेदव्वा । ] ......... कालपरूवणा ...... 'संखेंजस०, अणु० ज० ए०, उ० कहा है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध एक समयके अन्तरसे भी होता है और पूर्वकोटिकी आयुवाला जो तिर्यश्च प्रथम त्रिभागमें आगामी भवकी आयु बाँधकर उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है और वहाँ छह महीना काल शेष रहने पर पुनः आयुबन्ध करता है, उसके साधिक तीन पल्यके अन्तरसे भी अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देखा जाता है, इसलिये यहाँ आयुकर्मके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य कहा है। आयुकर्मके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका यह अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें भी घटित हो जाता है, इसलिये वह इसी प्रकार कहा है। इनकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्यप्रमाण है, इसलिये इनमें आठों कर्मा के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है, क्योंकि यहाँ अपनी कायस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें आठों कर्मो का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध हो और मध्यमें न हो,यह सम्भव है। इनमें आठों कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है.यह स्पष्ट ही है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंकी कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है और इनमें आठों कर्मों का उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध यथायोग्य एक समयके अन्तरसे हो सकता है, इसलिये इनमें आठों कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा आयुकर्मके अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ९३. मनुष्यत्रिकमें पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि सात कर्मो के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महर्त है। देवोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिये । मात्र सात कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना चाहिए। विशेषार्थ—स्वामित्व और कायस्थितिको देखते हुए मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकसे कोई विशेषता नहीं होनेसे यहाँ आठों कर्मोके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पञ्चन्द्रिय तियश्चत्रिकके समान कहा है। मात्र मनष्यत्रिको उपशमश्रेणिव प्राप्ति सम्भव होनेसे इनमें सात कर्मो के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर दो समयके स्थानमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बन जाता है, इसलिये इनमें सात कर्मों के अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धके अन्तरका अलगसे उल्लेख किया है। देवोंमें सब कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका स्वामित्व नारकियोंके समान है, इसलिये इनमें आठों कर्मो के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर नारकियोंके समान कहा है। मात्र देवोंके अवान्तर भेदोंकी भवस्थिति अलग-अलग है, इसलिये इन भेदोंमें अन्तर कहते समय सात कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी-अपनी उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण जाननेकी अलगसे सूचना की है। कालप्ररूपणा (नाना जीवोंकी अपेक्षा) ..........."संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट ....| 1. ता०प्रतौ अंतो० अणु० [अत्र ताडपत्र द्वयं विनष्टम् ] ....'संखेज्जसं० अणु०, प्रा०प्रती अंतो० अणु० ज० ए० उ०." ......"संखेजस० अणु० इति पाठः । For Private Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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