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________________ कालपरूवणा ४३ अज० ज० अंतो०, उ० छावद्वि० सादि० । आउ० देवभंगो । एवं ओधिदं०-सम्मा०खइग०-वेदग० । णवरि खड़ग०-वेदग० अज० अणुक०भंगो। ८६. मणप० सत्तण्णं' क० ज० ज० ए०, उ० चत्तारि स०। अज० ज० ए०, उ० पुचकोडी दे० । आउ० देवभंगो। एवं संजद-सामाइ०-छेदो०-परिहार०संजदासंजद० । सुहुमसं० अवगद० भंगो। चक्खु० तसपजत्तभंगो । एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टिजीवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें अजघन्य प्रदेशबन्धका भंग अनुत्कृष्टके समान है। विशेषार्थ-विभङ्गज्ञानमें सात कर्मोका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इसमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। तथा यहाँ जघन्य प्रदेशबन्धके मध्यमें एक समयतक अजघन्य प्रदेशबन्ध हो यह सम्भव है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय कहा है। विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, इसलिए इसमें उक्त कर्मो के अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। यहा आयुकमका भङ्ग देवाके समान है,यह स्पष्ट है । आभिनिवोधिक आदि तीन ज्ञानोंमें सात कोका जघन्य प्रदेशबन्ध प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ जीवके होता है, इसलिए इनमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इन ज्ञानोंका जघन्य काल और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर होनेसे इनमें सात कर्मों के अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर कहा है। यहाँ भी आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान है,यह स्पष्ट ही है । यहाँ अवधिदर्शनी आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें आभिनिबोधिक ज्ञानी आदिके समान काल घटित हो जानेसे वह उनके समान कहा है । मात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल भिन्न प्रकार है, इसलिये इनमें सात कर्मों के अजघन्य प्रदेशबन्धके कालको अनुत्कृष्टके समान जाननेकी सूचना की है। ८६. मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकरायत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसयत और संयतासंयत जीवांमें जानना चाहिए। सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें अपगतवेदी जीवोंके समान भंग है। चक्षदर्शनी जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सात कर्मोका जघन्य प्रदेशबन्ध घोलमान जघन्य योगसे होता है, इसलिए इसमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय कहा है । तथा दो बार जघन्य प्रदेशबन्धके मध्यमें एक समयके लिए अजघन्य प्रदेशबन्ध हो यह सम्भव है और मनःपर्ययज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है, इसलिए यहां सात काँके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण कहा है। यहाँ आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान है, यह स्पष्ट ही है । यहाँ संयत आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें मनःपर्ययज्ञानी १. आ०प्रतौ भंगो। मणुस. सत्तपणं इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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