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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ८७. किण्ण-णील काऊ. सत्तण्णं क० ज० ए० । अज० ज० अंतो,' उक० तेत्तीसं-सत्तारस-सत्तसाग० सादि० । आउ० ओघं । तेउ-पम्माणं सत्तण्णं क० ज० ए०। अज० ज० अंतो०, उ० बे-अट्ठारससाग० सादि० । आउ० देवभंगो। सुक्काए सत्तण्णं क० ज० ए० । अज० ज० अंतो०, उ० तँत्तीसं० सादि० । आउ० देवभंगो। ८८. उवसम० सत्तण्णं क० ज० ए० । अज० जहण्णुक्क० अंतो० । सासणे सत्तणं क० ज० ए० | अज० ज० ए०, उ० छावलिगा० । आउ० देवभंगो । सम्मामि० मणजोगिभंगो। जीवोंके समान कालपरूपणा बन जाती है, इसलिए उनका कथन मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके समान जानने की सूचना की है। शेष कथन स्पष्ट ही है। ८७. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर और साधिक सात सागर है। आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान है। पीत और पद्मलेश्यामें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमसे साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है । आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान है। शुक्ललेश्यामें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। आयुकर्मका भंग देवोंके समान है। विशेषार्थ-छहों लेश्याओंमें अपने-अपने योग्य प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ जीवके जपन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए इनमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा इन लेश्याओंका जघन्य काल अन्तमुहूते है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर आदि है, इसलिए इनमें सात कर्मों के अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। स्वामित्वको देखते हुए कृष्णादि तीन लेश्याओंमें आयुकर्मका भङ्ग ओघके समान और पीत आदि तीन लेश्याओंमें वह देवोंके समान बन जानेसे उस प्रकार जाननेकी सूचना की है। ८८. उपशमसम्यक्त्वमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादनसम्यक्त्वमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह आवलिप्रमाण है। आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान है । सम्यग्गिथ्यादृष्टि जीवोंमें मनोयोगी जीवोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-उपशमसम्यक्त्वमें प्रथम समयवर्ती देवके और सासादन सम्यक्त्वमें प्रथम समयवर्ती तीन गतिके जीवके सात कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिये इनमें सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इन दोनोंका जघन्य और उत्कृष्ट जो काल है, उसे ध्यानमें रखकर इनमें सात कर्मो के अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। सासादनमें आयुकर्मका भङ्ग देवोंके समान १. आ०प्रती अज० ज० ए०, उ. अंतो० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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