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________________ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ७७. विगलिंदि० सत्तण्णं क० ज० ज० उ० ए० । अज० ज० खुद्दाभ० समऊ० । पज्जत्ते' ज० ज० उ० ए० । अज० ज० अंतो० [समऊ०], उ० संखेंजाणि वाससह० । आउ० पंचिं०तिरिक्खदुगभंगो। ७८. पंचिं०-तस० सत्तणं क० ज० ज० उ० ए० । अज० ज० खुद्दाभ० समऊ०, उ० अणुकस्सभंगो। पजत्तेसु ज० ए०, अज० ज० अंतो०, उ० अणुक्कस्सभंगो । आउ० पंचि०तिरिभंगो। ७९. पुढ०-आउ०-तेउ०-वाउ ०-वणप्फदि-णियोद-सुहुमपुढ० एवं आउ० तेउ०इसका काल ओघके समान कहा है। तथा इस एक समयको अन्तर्मुहूर्तमेंसे कम कर देने पर यहाँ अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम अन्तर्महर्तप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है और इनकी कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होनेसे अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कहा है। ७७. विकलेन्द्रियोंमें सात कर्मो के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजवन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है। इनके पर्याप्तकोंमें जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल दोनोंमें संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है । तथा इन दोनोंमें आयुकर्मका भंग पंचेन्द्रियतिर्यश्चद्विकके समान है। विशेषार्थ-विकलेन्द्रियों और उनके पर्याप्तकोंमें भवग्रहणके प्रथम समयमें सात कर्मो का जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिये उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है, तथा इस एक समयको अपनी-अपनी जघन्य भवस्थितिमेंसे कम कर देने पर इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल होता है, इसलिये वह एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कहा है। तथा इन दोनोंको कायस्थिति संख्यात हजार वर्षप्रमाण होनेसे इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। आयुकमके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल स्वामित्वको देखते हुए विकलेन्द्रियों में पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चोंके समान और विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंके समान प्राप्त होनेसे यह उनके समान कहा है। ७८. पश्चेन्द्रिय और त्रस जीवोंमें सात कर्मो के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम क्षल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट कालका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है। पर्याप्त जीवोंमें सात कर्मों के अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कालका भङ्ग अनुत्कृष्टके समान है । आयुकर्मका भंग पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान है। विशेषार्थ-इन जीवोंके भी भवग्रहणके प्रथम समयमें सात कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इस एक समयको जघन्य भवस्थितिमेंसे कम कर देने पर इनके अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इसका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट प्रदेशबन्धके अनुत्कृष्टके समान है, यह स्पष्ट ही है । इसीप्रकार इनके पर्याप्तकोंमें काल घटित कर लेना चाहिए । शेष कथन सुगम है। ७९. पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, १. ता०प्रतौ समऊ । अ[प]जते इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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