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________________ कालपरूवणा ३७ ७६. एइंदि० सुहुमं च अट्ठण्णं क० ओघभंगो । बादर० सत्तण्णं क० ज० ज० उ० ए० । अज० ज० खुद्धाभ० समऊणं, उ० अंगुल० असंखे० । आउ • ओघं । बादरपज सत्तणं क० ज० ज० उ० ए० । अज० [ ज० ] अंतो० [समऊणं०], उ० संखेजाणि वाससह० । आउ० णिरयभंगो। एवं बादरवणफदि - बादरवणफदिपजत्तः । सव्वसुहुमपज० सत्तण्णं क० ज० ओघं । अज० ज० अंतो० समऊ ०, अंतो० | आउ० णिरयभंगो । अजघन्य प्रदेशबन्धका काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट भवस्थितिको ध्यान में रख कर कहना चाहिये । ७६. एकेन्द्रियों में और सूक्ष्म जीवोंमें आठ कर्मोंका भङ्ग ओघके समान है । बादरों में सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भव ग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । आयु कर्मका भंग ओघके समान है। बादर पर्याप्तकों में सात कर्मों के जघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशबन्ध का जघन्य काल एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । आयु कर्मका भंग सामान्य नारकियोंके समान है । इसीप्रकार बादर वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवों में जानना चाहिये । सब सूक्ष्म पर्याप्त जीवांमे सात कर्मो के जघन्य प्रदेशबन्धका काल ओघके समान है । अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । आयुकर्मका भङ्ग नारकियोंके समान है । विशेषार्थ :- यहाँ एकेन्द्रिय और सूक्ष्म जीवोंमें स्नात कर्मों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान प्राप्त होनेसे वह उसके समान कहा है । बादरों में सात कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्ध भवके प्रथम समय में होता है, इसलिये इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इस एक समयको क्षुल्लक भवमेंसे कम कर देने पर अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लक भवग्रहण प्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है और बादरोंकी कायस्थिति अङ्गुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे सात कर्मो के अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। इनके आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध ओधके समान क्षुल्लक भवग्रहणके तृतीय त्रिभागके प्रथम समय में होता है, इसलिये इसका भङ्ग ओघके समान कहा है । बादर पर्याप्तकोंमें भी सात कर्मों का जघन्य प्रदेशबन्ध भवके प्रथम समय में होता है, इसलिये इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इस एक समयको कम कर देने पर अजघन्य प्रदेशबन्धका जघन्य काल एक समय कम अन्तर्मुहूर्त कहा है और इनकी कायस्थिति संख्यात हजार वर्षप्रमाण होनेसे अजघन्य प्रदेशबन्धका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। आयुकर्मका जघन्य प्रदेशबन्ध नारकियोंके समान घोलमान जघन्य योगसे होनेके कारण यहाँ इसका भंग नारकियोंके समान कहा है। बादर वनस्पतिकायिक और वादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंका भङ्ग बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान होनेसे यह भङ्ग उक्त प्रमाण कहा है। सब सूक्ष्म पर्याप्त जीवों में सात कर्मो का जघन्य प्रदेशबन्ध ओघके समान प्राप्त होनेसे १. ता०प्रतौ सत्तणं क० ज० उ० इति पाठः । उ० Jain Education International o For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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