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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे भागाभागपरूवणा ३५५ अचक्खु०-किण्ण०-णील०-काउ०-भवसि०- अन्भवसि०-मिच्छा० - असण्णि० - आहार०अणाहारग त्ति । णवरि ओरालिमि०-कम्मइ०-अणाहारगेसु देवगदिपंचगं आहारसरीरभंगो । एवं इदरेसिं सव्वेसिं । असंखेंजरासीणं ओघं देवगदिभंगो। एवं संखेंजरासीणं तेसिं आहारसरीरभंगो कादव्यो । ५७१. जहण्णए पगदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओघे० आहारदुगं' उक्कस्सभंगो । सेसाणं सव्वपगदीणं जह० पदे०६० सव्वजी० केव० भागो ? असंखेजभागो। अजह० पदे०७० केवडि० ? असंखेंजा भागा। एवं याव अणाहारग त्ति अचक्षदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवों में देवगतिपञ्चकका भङ्ग आहारकशरीरके समान जानना चाहिए। इसी प्रकार अन्य सब मार्गणाओं में जानना चाहिए । उसमें भी असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें ओघसे कहे गये देवगतिके समान भङ्ग जानने चाहिए । तथा इसी प्रकार जो संख्यात संख्यावाली मार्गणाएँ हैं, उनमें आहारकशरीरके समान भङ्ग जानने चाहिए। विशेषार्थ—सामान्यसे नरकायु, मनुष्यायु और देवायु तथा वैक्रियिकषटक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके बन्धक जीव असंख्यात हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं । आहारकद्विकके बन्धक जीव संख्यात हैं, इसलिए इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं। तथा इनके सिवा अन्य जितनी प्रकृतियों शेष रहती हैं,उनके बन्धक जीव अनन्त हैं। उसमें भी उनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अपनी-अपनी अन्य योग्यताके साथ संज्ञी जीव ही करते हैं। शेष सब अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं, इसलिए उनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव अनन्त बहुभागप्रमाण कहे हैं। यहाँ सामान्य तिर्यश्च आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं, उनमें अपनी-अपनी बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंके अनुसार यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनका भोगाभाग ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें वैक्रियिकपञ्चकका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले कुल जीव संख्यात ही होते हैं, इसलिए इनमें इन पाँच प्रकृतियोंका भागाभाग आहारकशरीरके कहे गये भागाभागके समान जानने की सूचना की है। इसके सिवा एकेन्द्रिय आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ हैं. उनमें अपनी-अपनी बन्धको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। मात्र असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओं में ओघ से देवगतिके समान भङ्ग है और संख्यात संख्यावाली मार्गणाओं में आहारकशरीरके समान भङ्ग है,यह स्पष्ट ही है।। ५७१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे आहारिकद्विकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है। शेष सब प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी 1. आ०प्रतौ 'ओघे० उक्क० आहारदुगं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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