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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे भंगविचयपरूवणा ५६९. जहण्णए पगदं । तं चैव अट्ठपदं - मूलपगदिभंगो । ओघेण तिण्णिआउ०वेड व्वियछ० - आहार ०२ - तित्थ० जह० अजह० उकस्सभंगो । सेसाणं सव्वपगदीणं ज० अज ० ' अत्थि बंधगा य अबंधगा य । एवं ओघभंगो तिरिक्खोघो सव्वएइंदि०पुढवि० आउ० तेउ०- वाउ० तेसिं चेत्र बादर अपजत्त सव्वसुहुम ० - सव्ववणप्फदिणियोदाणं बादरपत्ते० तस्सेव अपज० कायजोगि ओरालि०-ओरालि ०मि० कम्मइ०वुंस०-कोधादि ६०४-मदि ० - सुद० - असंज० - अचक्खु ० - किण्ण० णील० काउ०- • भवसि ०अब्भवसि ० - मिच्छा० - असण्णि० - आहार- अणाहारग ति । णवरि ओरालि ०मि० - कम्मइ०अणाहार • देवग० पंचग० उक्कस्तभंगो । सेसाणं सव्वेसिं उक्कस्तभंगो । एवं णाणाजीवेहिभंगविचयं समत्तं ४ । और उनके अपर्याप्तक जीवों में भी यही व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें भी एकेन्द्रियां के समान जानने की सूचना की है। इस प्रकार यहाँ एकेन्द्रियादि अनन्त संख्यावाली और असंख्यात संख्यावाली जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं, उनके सिवा संख्यात और असंख्यात संख्यावाली जिन मार्गणाओंका अलग से उल्लेख नहीं किया है, उनमें सब प्रकृतियां के सब भङ्ग नारकियोंके समान जाननेकी पुनः सूचना की है । ३५३ ५६९. जघन्यका प्रकरण है। मूलप्रकृति के समान वही अर्थपद है। आंघ से तीन आयु, वैक्रियिकषट्क, आहारद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके जघन्य और अजघन्य प्रदेशबन्धका भन उत्कृष्ट अनुयोगद्वार के समान है। शेष सब प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य प्रदेशोंके बन्धक जीव हैं और अबन्धक जीव भी हैं। इसी प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यञ्च, सब एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जळकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक तथा इन पृथिवीकार्थिक आदिके बादर अपर्याप्त और सब सूक्ष्म जीव, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर प्रत्येक वनस्पति कायिक, बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकका भङ्ग उत्कृष्टके समान है । शेष सब मार्गणाओंमें उत्कृष्टके समान भक्त है । विशेषार्थ - ओघ से नरकायु, मनुष्यायु और देवा युके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध और अनुत्कृष्ट प्रदेश बन्धकी अपेक्षा आठ-आठ भङ्ग बतला आये हैं । यहाँ इनके जघन्य प्रदेशबन्ध और भजघन्य प्रदेशबन्ध की अपेक्षा भी वे ही आठ-आठ भङ्ग प्राप्त होते हैं, इसलिए इनका भङ्ग उत्कृष्टके समान कहा है। तथा वैक्रियिकषट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी अपेक्षा तीन-तीन भङ्ग बतला आए हैं। वे ही यहाँ इनके जघन्य प्रदेशबन्ध और अजघन्य प्रदेशबन्धकी अपेक्षा प्राप्त होते हैं, इसलिए इनका भङ्ग भी उत्कृष्टके समान कहा है। इनके सिवा शेष जितनी प्रकृतियाँ हैं, उनका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले नाना जीव निरन्तर पाये जाते हैं और अजघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले नाना १. भा० प्रसौ 'सम्वपगदीयं अज०' इति पाठः । २. ता०जा०प्रत्योः 'वाड० श्रोघो तेसिं चेव' इसि पाठः । ३. ता०प्रतौ भसणि० आहारण अणाहारग' इति पाठः । ४. ता०प्रतौ ' एवं णाणाजीवेहि भंगविचयं समसं' इति पाठो नास्ति । ४५ Jain Education Internation For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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