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________________ ३५२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे ५६८. एइंदिय-बादर-सुहुम-पञ्जत्तापजत्त. सव्वपगदीणं उक्क० अणु० अत्थि बंधगा य अबंधगा य । मणुसाउ० ओघं। एवं पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० तेसिं च बादर-बादरअपज०-सव्वसुहुम-पञ्जत्तापजत्तयाणं च। सव्ववणप्फदि-णियोद०-बादरसुहुम-पजत्तापजत्तयाणं बादरवणप्फदिपत्तेय० तस्सेव अपज० एइंदियभंगो। सेसाणं णिरयभंगो। छोड़कर सब मूल प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टकी अपेक्षा तीन-तीन भङ्ग होते हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानने चाहिए। तथा आयुकर्मका बन्ध कादाचित्क है, इसलिए इसकी अपेक्षा मूलप्रकृतिके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टका आश्रय कर जिस प्रकार आठ-आठ भङ्ग होते हैं, उसी प्रकार यहाँ तिर्यश्चाय और मनुष्यायुकी अपेक्षा आठ-आठ भङ्ग जानने चाहिए। इन भङ्गोंका खुलासा पहले कर आये हैं। यहाँ सातों पृथिवियोंमें तथा संख्यात संख्यावाली और असंख्यात संख्यावाली अन्य मार्गणाओं में भी यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनकी प्ररूपणा सामान्य नारकिर्योके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र मनुष्य अपर्याप्त आदि जितनी सान्तर मार्गणाएँ हैं, उनमें सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टकी अपेक्षा आठ-आठ भङ्ग होते हैं, क्योंकि इन मार्गणाओंमें कदाचित् कोई जीव होता है और कदाचित् कोई जीव नहीं होता। यदि होता है तो कदाचित एक जीव होता है और कदाचित नाना जीव होते हैं। इसी प्रकार सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा भी बन्धाबन्ध तथा एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा विकल्प बन जाते हैं, इसलिए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टकी अपेक्षा आठ-आठ भङ्ग कहे हैं । यहाँ विशेष बात यह कहनी है कि यद्यपि अपगतवेद मार्गणा निरन्तर होती है, पर इसका यह नैरन्तर्य सयोगकेवली गुणस्थानकी अपेक्षासे ही है। किन्तु बन्धका विचार दसवें गुणस्थान तक ही किया जाता है, इसलिए दसवें गुणस्थान तक तो यह भी सान्तर मार्गणा है, अतः यहाँ पर इसकी भी अन्य सान्तर मार्गणाओंके साथ परिगणना की है। ५६८. एकेन्द्रिय, बादर और सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके बन्धक जीव भी हैं और अबन्धक जीव भी हैं। मात्र मनुष्यायुका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीव तथा इनके बादर और बादर अपर्याप्त तथा सब सूक्ष्म और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंमें जानना चाहिए। सब वनस्पतिकायिक और सब निगोद तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में तथा बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर और उनके अपर्याप्तकोंमें एकेन्द्रियोंके समान भङ्ग है । शेष सब मार्गणाओं में नारकियोंके समान भङ्ग है। विशेषार्थ-एकेन्द्रिय और उनके अवान्तर भेदोमें एक मनुष्यायुको छोड़कर अन्य जितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है, उनका उत्कृष्ट बन्ध करनेवाले भी नाना जीव निरन्तर पाये जाते हैं और अनुत्कृष्ट बन्ध करनेवाले भी नाना जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए उत्कृष्ट की अपेक्षा नाना जीव उसके बन्धक हैं और नाना जीव उसके बन्धक नहीं हैं-यही एक भङ्ग पाया जाता है। तथा इसी प्रकार अनुत्कृष्ट को अपेक्षा भी यही एक भङ्ग पाया जाता है। मात्र मनुष्यायुका भङ्ग कदाचित् होता है। उसमें भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट बन्ध कदाचित् एक जीव और कदाचित् नाना जीव करते हैं। इसलिए ओघके समान यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके आठ-आठ भङ्ग बन जाते हैं। पृथिवी आदि चार तथा उनके बादर, बादर अपर्याप्त, सूक्ष्म और सूक्ष्मोंके सब अवान्तर भेदोमें भी ये ही भङ्ग बन जाते हैं, इसलिए इनकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान जाननेकी सूचना की है। आगे सब वनस्पति, सब निगोद तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त तथा बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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