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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे भंगविचयपरूवणा ३५१ संखेज ५६७. णिरएसु सव्वपगदीणं मूलपगदिभंगो। एवं सव्वपुढवीणं असंखेजरासीणं णिरयगदिभंगो। णवरि मणुस ० अपज० वेउन्वि०मि० आहार० आहार०मि० अवगढ़ ०- सुहुम ०-उवसम० सासण० सम्मामि० सव्वपगदीणं अट्टभंगो | करते | इस अर्थपदके अनुसार उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा सब उत्तर प्रकृतियोंके भङ्ग लाने पर वे तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं - सब उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा ? कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले नहीं होते । २ कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले नहीं होते और एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला होता है । ३ कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करवाले नहीं होते और अनेक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले होते हैं। इस प्रकार सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्धको मुख्यता से ये तीन भङ्ग होते हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी अपेक्षा भङ्ग लाने पर ये तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं - १ कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले होते हैं । २ कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले होते हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला नहीं होता । ३ कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले होते हैं और अनेक जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले नहीं होते। इस प्रकार अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध की अपेक्षा ये तीन भङ्ग होते हैं । मूलप्रकृतिप्रदेशबन्ध की अपेक्षा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके ये ही तीन-तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं, इसलिए यहाँ उसके समान जाननेकी सूचना की है। ओघसे यहाँ अन्य सब प्रकृतियोंके तो ये सब भङ्ग बन जाते हैं। मात्र तीन आयु अर्थात् नरकायु, मनुष्यायु और देवायु इसके अपवाद हैं । कारण कि इन आयुओंका बन्ध कदाचित् होता है, इसलिए बन्धावन्ध और एक तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके आठ भङ्ग होते हैं । यथा -१ कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । २ कदाचित् एक भी जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करता । ३ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं । ४ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करते । ५ कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है और एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करता । ६ कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करता और नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं । ७ कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है और नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करते । ८ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं और नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करते। इस प्रकार तीनों आयुओंके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका विधिनिषेध करनेसे ये आठ भङ्ग होते हैं । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्धको मुख्य कर आठ भङ्ग कहने चाहिये । यहाँ सामान्य तिर्यञ्च आदि अन्य जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनकी प्ररूपणा ओघके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र जिस मार्गणा में जितनी प्रकृतियों का बन्ध होता हो उसीके अनुसार वहाँ भङ्गविचयकी प्ररूपणा करनी चाहिए । किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक मार्गणा में देवगतिपञ्चकका बन्ध कदाचित् एक या नाना जीव करते हैं और कदाचित् नहीं करते, इसलिए यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार से उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के आठ भक्त होते हैं । ५६७. नारकियोंमें सब प्रकृतियोंके मूल प्रकृतिके समान भङ्ग होते हैं । इसी प्रकार सब पृथिवियों में जानना चाहिये । संख्यात और असंख्यात संख्यावाली अन्य जितनी मार्गणाएँ हैं, उनमें नारकियोंके समान भङ्ग जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्त, वैयिक मिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों में सब प्रकृतियोंके आठ भङ्ग होते हैं । विशेषार्थ - नारकियों में सब उत्तर प्रकृतियोंका विचार अपनी-अपनी मूलप्रकृतिके अनुसार जाननेकी सूचना की है सो इसका यही अभिप्राय है कि जिस प्रकार आयुकर्मको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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