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________________ ३५० भंगो | देवगदि०४' मोत्तूण । ५६५. सण्णि० मणुसभंगो । असणि० तिरिक्खोघं । णवरि वेउव्त्रियछक्कं जोणिणिभंगो । आहार० ओघं । अणाहार० कम्मइगभंगो । एवं जहणत्थाणसणिकासं समत्तं । एवं सणिकासं समत्तं । भंगविचयपरूवणा ५६६. णाणाजीवेहि भंगविचयं दुविधं जहण्णयं उकस्सयं च । उक्कस्सए पगदं । तत्थ इमं अट्ठपदं - मूलपगदिभंगो। सव्वपगदीणं उक्कस्साणुक्कस्सं मूलपगदिभंगो | तिणिआउ० उकस्साणुक्कस्सं अट्ठभंगो। एवं ओघभंगो तिरिक्खोधं कायजोगि-ओरालि०ओरालियमि०-कम्मइ०-णवुंस० कोधादि०४-मदि० सुद० असंज० अचक्खु ० - किण्ण ०णील०- काउ०- भवसि ० - अब्भवसि० - मिच्छा० - असण्णि० आहार ० अणाहारग ति । णवरि ओरालियम १०- कम्मइ० - अणाहार देवगदिपंचग० उक० अणु० अभंगो । महाबंघे पदेसंबंधाहियारे मनुष्यगतिके समान है । मात्र देवगतिचतुष्कको छोड़ देना चाहिए। ५६५. संज्ञी जीवोंमें मनुष्योंके समान भङ्ग है । असंज्ञी जीवों में सामान्य तिर्यखों के समान भङ्ग है । इतनी विशेषता है कि इनमें वैक्रियिकषटकका भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी जीवोंके समान है । आहारक जीवोंमें ओघ के समान भङ्ग है । अनाहारक जीवों में कार्मणकाययोगी जीवोंके समान भङ्ग है । इस प्रकार जघन्य परस्थान सन्निकर्ष समाप्त हुआ । इस प्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ । भङ्गविचयप्ररूपणा ५६६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट | उत्कृष्टका प्रकरण है | उसमें यह अर्थपद है - जो मूलप्रकृतिके समय कहे गये अर्थपदके अनुसार है । सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट भङ्गविचय और अनुत्कृष्ट भङ्गविचय मूलप्रकृतिके भङ्गके समान है । तीन आयुओं के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके आठ भङ्ग होते हैं । इस प्रकार ओघके समान सामान्य तिर्यों में तथा काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोनलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणका योगी और अनाहारक जीवोंमें देवगतिपञ्चकके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके ओठ भङ्ग होते हैं । Jain Education International विशेषार्थ --- यहाँ सब उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवां भङ्गका संकलन किया गया है। इस विषय में यह अर्थपद है कि जो जिस प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं वे उस समय उस प्रकृतिका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं करते । तथा जो जिस प्रकृतिका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करते हैं वे उस समय उस प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध नहीं १. ताप्रती 'मणुसगदिभंगो देवगदि०४' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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