SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं ३३५ भागब्भ० । तित्थ० सिया० जह० । एवं चदुणा०-छदंम०-सादा०-चद संज-पंचणोक.. देवाउ०-उच्चा०-पंचंत। ५३६. असादा०* जह० पदे०५० पंचणा०-उदंस०-चदसंज-पुरिस-भय-द... देवगदि-पंचिंदि०-वेउव्वि० - तेजा०-क० - समचद् ० - वेउवि०अंगो०-वण्ण०४-देवाणु०. अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आर्दै०-णिमि०-उच्चा०-पंचंत. णि. बं. णि. अजह० संखेजभागभ० । हस्स-रदि-थिर-सुभ-जस-तित्थ० सिया० संखेंजदिमागभ० । अरदि-सोग० सिया० जह० । अथिर-असुभ-अजस० सिया० तंतु० संखेंजदिभा० । एवं अरदि-सोगाणं । ५३७. देवग० जह० पदे०५० पंचणा०-छदसणा०-सादा०-चदुसंज०-पुरिस०हस्स-रदि-भय-दु०-देवाउ०-पंचिंदि० - वेउवि०-तेजा० - क०-समचदु० - वेउव्वि० अंगो०वण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ० -णिमि०-तित्थ०-उच्चा०-पंचंत. नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पाँच नोकपाय, देवायु, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५३६. असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, देवगति, पञ्चन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, त्रस चतुष्क, सुभग, सुस्वर, भादेय, निर्माण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। हास्य, रति, स्थिर, शुभ, यश कीर्ति और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजधन्य प्रदेशबन्ध करता है । अरति और शोकका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। अस्थिर, अशुभ और अयश कीर्तिका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् वन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यात भाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार अर्थात् असातावेदनीयका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान अरति और शोकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए। ___ ५३७. देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवायु, पश्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तेजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्मानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका १. ता०प्रती 'पंचंत० असाद' इति पाटः। २. ता०प्रती 'अगु० ४ तस. थिरादिछ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy