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________________ ३३४ महाबंधे पदेसबंधाहियारे सिया० तं-तु० सादिरेयं दुभाग० संखेंजदिभागब्भहियं वा । ५३४. वचिजो०-असच्चमोसवचि० तसपजत्तभंगो । णवरि दोआउ०-उब्बियछ० जोणिणिभंगो । आहारदुगं तित्थ. ओघं । कायजोगि० ओघं । ओरालियका० ओघभंगो। णवरि सुहुमपढमसमयसरीरपजत्तयस्स सामित्तादो सण्णिकासो कादव्यो । चदुआउ०-वेउवि०छक्क-आहारदुग-तित्थयराणं सह याओ पगदीओ आगच्छंति ताओ असंखेंजगुणाओ एदेण बीजेण णेदव्याओ सव्वपगदीओ। ओरालियमि० ओघं । णवरि देवगदिपंचगं मणुसभंगो । वेउव्वियका०-वेउब्वियमि० सोधम्मभंगो। ५३५. आहार-आहार० मि० आभिणि. जह० पदे०७० चदुणा०-छदंस०सादा०-चदुसंज-पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगु-देवाउ०-उच्चा०-पंचंत. णि० बं० णि. जह। देवगदि'-पंचिंदि०-वेउव्वि०-तेजा०-क०-समचद ०-वेउवि अंगो०-वण्ण०४. देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-थिरादिछ०-णिमि० णि. बं० णि तंतु० संखेंजदि प्रदेशबन्ध करता है या संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। ५३४. वचनयोगी और असत्यमृषावचनयोगी जीवोंमें त्रसपर्याप्त जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि दो आयु और वैक्रियिकपटकका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोंका सन्निकर्ष भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंके समान है। तथा आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। काययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। औदारिककाययोगी जीवोंमें भी ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि शरीरपर्याप्त होकर जो सुक्ष्म जीव प्रथम समय में स्थित है वह यथायोग्य प्रकृतियोंके जघन्य प्रदेशबन्धका स्वामी होता है, इसलिए यहाँ इस बातको ध्यानमें रखकर सन्निकर्ष कहेना चाहिए। तथा चार आय, वैक्रियिकषटक, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिके साथ जो प्रकृतियाँ आती हैं, वे नियमसे असंख्यातगुणी अजघन्य प्रदेशबन्धवाली होती हैं। इस बीजपदके अनुसार सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ले जाना चाहिए। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि देवगतिपञ्चकका भङ्ग मनुष्योंके समान है। वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें सौधर्मकल्पके देवोंके समान भङ्ग है। ५३५. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में आभिनिवाधिकज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावंदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवायु. उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, वैक्रियिकशरीर, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्ग, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, स्थिर आदि छह और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इसका १. ताप्रती 'जह देवगदि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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