SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३६ महाबंधे पदेसबंधाहियारे णि० बं० णि० जह० । एवं देवगदिभंगो सव्वाणं पसत्थाणं णामाणं । ५३८. अथिर० जह० पदे०७० सादावे०-हस्स-रदि-सुभ-जस० सिया० संखेजदिभागभ० । असादा०-अरदि-सोग-असुभ-अजस० सिया० जह० । सेसाओं णि०० णि. अजह० संखेंजदिभागम्भ० । एवं असुभ-अजस० । ५३९. कम्मइग. मूलोधभंगो। इत्थिवेदेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणिणिभंगो। णवरि आहार-आहार०अंगो-तित्थ० मणुसिभंगो । पुरिस० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि आहारदुग-तित्थ. ओघो। गंqसगे संठाणं मूलोघं । गवरि वेउव्वियछकं जोणिणिभंगो। तित्थयरं ओघं णेरइगस्स भवदि। ५४०. अवगदवेदेसु आभिणि० जह० पदे०बंधतो चदुणा०-चदुदंसणासादावे-जसगि०-उच्चागो०-पंचंतरा०णि बं०णियमा जहण्णा। कोधसंज. सिया० जह० । माणसंज० सिया० तंतु० संखेंजदिभागब्भ० । मायासंज. सिया० त०तु० नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार देवगतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान नामकर्मकी सब प्रशस्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५३८. अस्थिर प्रकृतिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव सातावेदनोय, हास्य, रति, शुभ और यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अशुभ और अयशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। शेष प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातभाग अधिक अजघन्य प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् अस्थिरप्रकृतिका जघन्य प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवके कहे गये उक्त सन्निकर्षके समान अशुभ और अयश कीर्तिका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिए। ५३९. कार्मणकाययोगी जीवोंमें मूलोघके समान भङ्ग है। स्त्रीवेदी जीवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारकशरीर, आहारकशरीराङ्गोपाङ्ग और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग मनुष्यिनीके समान है। पुरुषवेदी जीवोंमें पन्ने न्द्रिय तिर्यश्चोंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विक और तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओघके समान है। नपुंसकवेदी जीवोंमें स्वस्थान मूलोधके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकषटकका पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंके समान भङ्ग है। तीर्थङ्करप्रकृतिका भङ्ग ओधके समान है। इसका जघन्य स्वामी नारकी होता है। ५४०. अपगतवेदी जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका जघन्य प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, सातावेदनीय, यश-कीर्ति, उचगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो इसका नियमसे जघन्य प्रदेशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो जघन्य प्रदेशबन्ध भी करता १.ताप्रती 'जह सेसाश्रो' इति पाठः ।२. ता०प्रती 'णपु'सके० सं (स) हाणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy