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महाबंधे पदेसवंधाहियारे सिया० तंतु० संखेंजगुणही० । एवं सेसाओ वि पगदीओ एदेण कमेण णेदव्याओ। णामाणं हेट्ठा उवरि णिद्दाए भंगो । णामाणं सत्थाण भंगो।
४७१. परिहारेसु आभिणि० उक्क० पदे०७० चदुणा०-छदंस०-चदुसंज०पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत० णि बं० णि. उक्क० । सादासाद०-चदुणोक०-तित्थ० सिया० उक्क० । देवगदिअहावीसं० णि. बं. तंतु० संखेजदिभागूणं० । णवरि वेउव्वि [अंगो०] सादिरेयं दुभागूणं । आहारदुग-थिरादितिण्णियुग० सिया० तंतु० संखेजदिभागणं । एवं चदुणा०-छदंस०-सादा०-चदुसंज० छण्णोक०-उच्चा०-पंचंत० ।
४७२. असादा०' उक्क० पदे०६० आभिणि भंगो। णवरि आहारदुर्ग वज । पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंकी मुख्यतासे भी इसी क्रमसे सन्निकर्ष ले जाना चाहिए। मात्र नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राकी मुख्यतासे कहे गए सन्निकर्षके समान है । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है।
४७१. परिहारविशुद्धिसंयतं जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है, सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है । यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियों का नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो उनका वह नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका वह नियमसे साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आहारकद्विक और स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह उनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, सातावेदनीय, चार संज्वलन, छह नोकषाय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । अर्थात् जिस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष कहा है, उसी प्रकार इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष कहना चाहिए।
४७२. असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके आभिनिवोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये सन्निकर्षके समान सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आहारकद्विकको छोड़कर यह सन्निकर्ष कहना चाहिए
१. ताप्रती 'पंचंत असाद.' इति पाठः ।
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