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________________ २९७ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं वेउव्वि [अंगो०] णि तंतु० संखेंजदिभागणं० । ४७३. देवाउ० ओघं । सव्वाओ पगदीओ संखेंजदिमागणं० । ४७४. देवगदि० उक० पदे०बं० पंचणा०-छदंस०-चदुसंज.'-पुरिस०-भय-दु०उच्चा०-पंचंत० णि० बं० उक्क० । सादासाद०-चदुणोक० सिया० उक्क० । णामाणं सत्थाणभंगो। 'एवं सव्वाणं णामाणं हेट्ठा उवरिं देवगदिभंगो। णामाणं अप्पप्पणो सत्थाणभंगो। . ४७५. सुहुमसंप० ओघभंगो। संजदासंजदेसु आभिणि. उक्क० पदे०५० चदुणा०-छदंसणा०-अट्टक-पुरिस०-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत. णि० बं० णि. उक्क० । सादासाद०-चदुणोक०-तित्थ० सिया० उक्क० । देवगदिपणवीसं० णि० बं० तंतु० संखेंजदिभागणं । थिरादितिण्णियु० सिया० तं-तु० संखेजदिभागणं बं० । एदेण तथा वह वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। ४७३. देवायुका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके ओघके समान भङ्ग है। मात्र वह सब प्रकृतियोंका संख्यातभागहीन अनुत्कृट प्रदेशबन्ध करता है। ४७४. देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और चार नोकषायका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार सब नामकर्मकी प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके नामकर्मसे पूर्वकी और बादकी प्रकृतियोंका भङ्ग देवगतिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके जिस प्रकार इन प्रकृतियोंका सन्निकर्ष कहा है, उस प्रकार है तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग अपने अपने स्वस्थान सन्निकर्षके समान है। ४७५. सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंमें ओघके समान भङ्ग है। संयतासंयत जीवोंमें आभिनिबोधिकज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव चार ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, आठ कषाय, पुरुषवेद, भय, जुगुप्सा, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगतिचतुष्क आदि पच्चीस प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। स्थिर आदि तीन युगलका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी क्रमसे सब प्रकृतियोंका १. ता० आ० प्रत्योः 'छदंस० सादा० चदुसज०' इति पारः। ३८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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