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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सणियासं छण्णोक० । णवरि अरदि-सोगाणं आहारदुर्ग वज । ४६९. चक्खुदं० उक्क० पदे०७० पंचणा०-तिण्णिदंस०-सादा०-उच्चा०-पंचंत० णि० बं० णि० उक्क० | चदुसंज० आभिणि भंगो। पुरिस०-जस० सिया० तंतु० संखेंजगुणही० । णवरि जस० णि । णामाणं सव्वाणं मणपञ्जवभंगो। ४७०. जस०' उक्क० पदे०बं० पंचणा०-चदुदंस०-सादावेद-उच्चा०-पंचंत० णि. बं० उक्क० । कोधसंज० सिया० तंतु. दुभागूणं० । माणसंज० सिया० तंतु० सादिरेयं दिवड्डभागूणं वा चदुभागूणं वा । मायासंज. सिया० तंतु० संखेंजगुणही. दुभागणं० तिभागूणं वा । लोभसंज० णि बं० तंतु० संखेजगुणही । पुरिस० करनेवाले जीवका जिस प्रकार सन्निकर्ण कहा है, उसी प्रकार छह नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अरति और शोकका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके आहारकद्विकको छोड़कर सन्निकर्ण कहना चाहिए। ४६९. चक्षुदर्शनावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, तीन दशनावरण, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलनका भङ्ग आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके जिस प्रकार कह आये हैं उस प्रकार है। पुरुषवेद और यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इतनी विशेषता है कि वह यशःकीर्तिका नियमसे बन्ध करता है। नामकमकी सब प्रकृतियोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष मनःपर्यययज्ञानी जीवोंके समान है। ४७२. यशःकीर्तिका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शना. वरण, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुस्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन या चार भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मायासंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका संख्यातगुणहीन या दो भागहीन या तीन भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। लोभसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। १. ता०या०प्रत्योः 'मणपज्जवभंगो। णवरि जस.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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