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________________ २९४ महाधंधे पदेसबंधाहियारे णि बं० णि० उक्क० । चददंस० णि० बं० अणंतभागणं । सादासाद०-चदणो०तित्थ० सिया० उक्क० । कोधसंज० णि० ब० दुभागणं० । माणसंज० णि० सादिरेयं दिवड्डभागूणं०। मायासं०-लोभसं०-पुरिस० णि. बं. संखेंजगुणहीणं' बं० । देवगदिअट्ठावीसं णि० ब० तंतु० संखेजदिभागूणं० । णवरि वेउव्वि०अंगो० णि. तंतु० सादिरेयं दुभागूणं० । आहारदुग-थिराथिर-सुभासुभ-अजस० सिया० तंतु० संखेंजदिभागूणं० । जस० सिया० संखेंसगुणही० । एवं पयला० । ४६८. असाद० उक्क० पदे०५० पंचणा०-णिद्दा-पयला-भय-दु०-उच्चा०-पंचंत. णि बं० णि० उक्क० । चदुदंस० णि बं० अणंतभागूणं । चदुसंज-[चदुणोक०] णिदाए भंगो। पुरिस० णि० संखेंजगुणहीणं० । णामाणं णिहाए भंगो। एवं करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । सातावेदनीय, असातावेदनीय, चार नोकषाय और तीर्थङ्करप्रकृति का कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदशबन्ध करता है। मानसंज्वलनका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। मायासंज्वलन, लोभसंज्वलन और पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगात आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इतनी विशेषता है कि वैक्रियिक शरीर आङ्गोपाङ्गका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसका उत्कृट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे साधिक दो भागहीन अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। आहारकद्विक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, और अयश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशचन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यशःकीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये सन्निकर्षके समान प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष कहना चाहिए। ४६८. असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, निद्रा, प्रचला, भय, जुगुप्सा, उच्च गोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार दर्शनावरणका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे अनन्तभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। चार संज्वलन और चार नोकषायका भङ्ग निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध करनेवाले जीवके कहे गये सन्निकर्षके समान है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसके नामकर्मकी प्रकृतियोंका भङ्ग निद्राका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके कहे गये सन्निकर्षके समान है। इसी प्रकार अर्थात् असातावेदनीयका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध १. ता. या प्रत्योः 'संखेजदिभागूणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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