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________________ उत्तरपगदिपदेसबंधे सण्णियासं २९३ सादिरेयं दिवड्डभागूणं० संखेंजदिभागूणं वा । मायसंज० सिया० तं•तु० संखेंजगुणही. दुभागणं. तिभागणं वा । अथवा मायाए सिया तंतु० विद्याणपदिदं बं० संखेजदिभागहीणं. संखेजगुणहीणं वा। लोभसंज० णि० ब० तंतु० संखेंजगुणही । पुरिस० सिया० तं•तु० संखेंजगुणही० । देवगदिआदीणं सव्वाणं णामाणं सिया० तंतु. संखेजदिमागणं० । वेउवि० अंगो० सिया० तं० तु. सादिरेयं दुभागणं । जस० सिया० तंतु० संखेजगुणहीणं० । एवं चदुणा०-सादा०-उच्चा०पंचंत। ४६७. णिहाए उक० पदे०बं० पंचणा०-पयला-भय-द ०-उच्चागो०-पंचंत० इसका नियमसे साधिक डेढ़ भागहीन या संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । माया संज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन, दो भागहीन या तीन भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है अथवा मायाका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे द्विस्थानपतित बन्ध करता है या संख्यातभागहीन या संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । लोभ संज्वलनका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इसका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। पुरुषवेदका कदाचित् बन्ध करता है और चत बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति आदि सब नामकर्मकी प्रकृतियोंका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध रता है तो वह इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यश कीर्तिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। इसी प्रकार अर्थात् आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवके समान चार ज्ञानावरण, सातावेदनीय, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४६७. निद्राको उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, प्रचला, भय, जुगुप्सा उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका निय से बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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