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________________ २९२ महाबंधे पदेसबंधाहियारे चदुसंज. ओघो। पुरिस० णि. संखेजगुणही। देवग-पंचिंदि०-तिण्णिसरीरसमचदु०-चण्ण०४-देवाणु०-अगु०४-पसत्थ०-तस०४-सुभग-सुस्सर-आदें -णिमि० तंन्तु० संखेंजदिमागूणं । आहारदुग-थिराथिर-सुभासुभ-अजस० सिया० तं तु. संखेंजदिभागूणं । वेउवि०अंगो० सिया० त० तु. सादिरेयं दुभागूणं० । तित्थ० सिया० उक्क० । जस० सिया० संखेंजगुणही० । एवं पयला० । एदेण कमेण सव्वाओ पगदीओ णादव्वाओ। एवं संजदाणं । ४६६. सामाइ०-छेदो० आभिणि उक्क० पदे०० पंचणा०-चदुदंसणा०उच्चा०-पंचंत. णि बं० णि. उक्क० । णिद्दा-पयला-सादासाद०-छण्णोक०-तित्थ० सिया० उक्क० । कोधसंज. सिया० तंतु० दुभागूणं० । माणसंज. सिया० तंतु० चार संज्वलन का भङ्ग ओघके समान है। पुरुषवेदका नियमसे बन्ध करता है जो इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। देवगति, पञ्चेन्द्रियजाति, तीन शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, देवगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघुचतुष्क, प्रशस्त विहायोगति, सचतुष्क, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माणका नियमसे बन्ध करता है। किन्तु वह इनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है.। आहारकद्विक, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ और अयशःक्रीतिका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं ता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो इनका नियमसे संख्यातभागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। वैक्रियिकशरीर आङ्गोपाङ्गका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह उसका साधिक दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो वह इसका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। यश कीर्तिका कदाचित बन्ध करता है। या बन्ध करता है तो वह इसका नियमसे संख्यातगुणहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । इसी प्रकार प्रचलाका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इस क्रमसे सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवका सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसी प्रकार अर्थात् मनःपर्यज्ञानी जीवोंके समान संयत जीवों में सन्निकर्ष जानना चाहिए। ४६६. सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाला जीव पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, उच्चगोत्र और पाँच अन्तरायका नियमसे बन्ध करता है जो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है। निद्रा, प्रचला, सातावेदनीय, असातावेदनीय, छह नोकषाय और तीर्थङ्कर प्रकृतिका कदाचित् बन्ध करता है। यदि बन्ध करता है तो इनका नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । क्रोसंधज्वलन का कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करतो । यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है । यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह इसका नियमसे दो भागहीन अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । मानसंज्वलनका कदाचित् बन्ध करता है और कदाचित् बन्ध नहीं करता। यदि बन्ध करता है तो उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी करता है। यदि अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है तो वह १. ता०प्रतौ 'एवं संजदाणं सामा० छेदो० । श्राभिणि' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001393
Book TitleMahabandho Part 6
Original Sutra AuthorBhutbali
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages394
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size10 MB
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